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सर्वार्थसिद्धौ
[419 $458शृङ्गाराकारविलासचतुरमनोज्ञवेषरूपावलोकनमात्रादेव परममुखमाप्नुवन्ति। शुक्रमहाशुक्रशतारसहस्रारेषु देवा देववनितानां मधुरसंगीतमृदुहसितललितकथितभूषणरवश्रवणमात्रादेव परां प्रीतिमास्कन्दन्ति।आनतप्राणतारणाच्युतकल्पेषु देवा स्वाङ्गनामनःसंकल्पमात्रादेव परं सुखमाप्नुवन्ति। 8 458. अथोत्तरेषां किंप्रकारं सुखमित्युक्ते तन्निश्चयार्थमाह ---
___ परेऽप्रवीचाराः ॥9॥ $ 459. 'पर' ग्रहणमितराशेषसंग्रहार्थम् । 'अप्रवीचार'ग्रहणं परमसुखप्रतिपत्त्यर्थम् । प्रवीचारो हि वेदनाप्रतिकारः । तदभावे तेषां परमसुखमनवरतं भवति ।
8460. उक्ता ये आदिनिकायदेवा दशविकल्पा इति तेषां सामान्यविशेषसंज्ञाविज्ञापनार्थमिदमुच्यते
भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिक्कुमाराः ॥10॥
8461. भवनेषु वसन्तीत्येवंशीला भवनवासिनः । आदिनिकायस्येयं सामान्यसंज्ञा। असुरादयो विशेषसंज्ञा विशिष्टनामकर्मोदयापादितवृत्तयः सर्वेषां देवानामवस्थितवयःस्वभावत्वेऽपि वेषभूषायुधयानवाहनक्रीडनादिकुमारवदेषामाभासत इति भवनवासिषु कुमारव्यपदेशो रूढः । स प्रत्येक परिसमाप्यते असुरकुमारा इत्येवमादि । क्व तेषां भवनानीति चेत् । उच्यते--- रत्नप्रभायाः पंकबहुलभागेऽसुरकुमाराणां भवनानि । खरपृथिवीभागे उपर्यधश्च एकैकयोजनसहस्रं वर्जयित्वा देखने मात्रसे ही परम सुखको प्राप्त होते हैं । शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार स्वर्गक देव देवांगनाओंके मधुर संगीत, कोमल हास्य, ललित कथित और भूषणोंके कोमल शब्दोंके सुननेमात्र से ही परम प्रीतिको प्राप्त होते है । तथा आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पके देव अपनी अंगनाका मनमें संकल्प करनेमात्रसे ही परम सूखको प्राप्त होते हैं।
8 458. अब आगेके देवोंका किस प्रकारका सुख है ऐसा प्रश्न करनेपर उसका निश्चय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
बाकीके सब देव विषय-सुख से रहित होते हैं ॥9॥
8459. शेष सब देवोंका संग्रह करनेके लिए सूत्र में 'पर' शब्दका ग्रहण किया है। परम सखका ज्ञान कराने के लिए अप्रवीचार पदका ग्रहण किया है। प्रवीचार वेदनाका प्रतिकारमात्र है। इसके अभावमें उनके सदा परम सुख पाया जाता है।
8460. आदिके निकायके देवोंके दस भेद कहे हैं । अब उनकी सामान्य और विशेष संज्ञाका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
भवनवासी देव दस प्रकारके हैं—असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार ॥10॥
8461. जिनका स्वभाव भवनोंमें निवास करना है वे भवनवासी कहे जाते हैं। प्रथम निकायकी यह सामान्य संज्ञा है। तथा असुरादिक विशेष संज्ञाएँ हैं जो विशिष्ट नामकर्मके उदयसे प्राप्त होती हैं । यपि इन सब देवोंका वय और स्वभाव अवस्थित है तो भी इनके वेष, भूषा, शस्त्र, यान, वाहन और क्रीड़ा आदि कुमारोंके समान होती है, इसलिए सब भवनवासियोंमें कुमार शब्द रूढ़ है। यह कुमार शब्द प्रत्येकके साथ जोड़ लेना चाहिए। यथा असुरकुमार आदि । शंका-इनके भवन कहाँ है ? समाधान-रत्नप्रभाके पंकबहुल भागमें असुर. कुमारोंके भवन हैं। और खर पृथिवीभाग में ऊपर और नीचे एक-एक हजार योजन छोड़कर शेष 1. पंकबहल- आ., दि. 1, दि. 2 ।
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