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तृतीयोऽध्यायः ऋद्धिप्राप्ता अपि मनुष्या गच्छन्ति अन्यत्रोपपादसमुद्घाताभ्याम् । ततोऽस्यान्वर्थसंज्ञा। एवं जम्बूद्वीपाविष्वर्धतृतीयेषु द्वीपेष द्वयोश्च समुद्रयोर्मनुष्या वेदितव्याः । ते द्विविधाः
प्रार्या म्लेच्छाश्च ॥36॥ 8435. गुणैर्गुणवद्भिर्वा अर्यन्त इत्यार्याः । ते द्विविधा ऋद्धिप्राप्तार्या अनृद्धिप्राप्तार्याश्चेति । अनुद्धिप्राप्तार्याः पंचविधाः क्षेत्रार्या जात्यार्याः कर्माश्चिारित्रार्या वर्शनार्याश्चेति । ऋद्धिप्राप्ताः सप्तविधाः; बुद्धिविक्रियातपोबलौषधरसाक्षीणभेदात् । म्लेच्छा द्विविधाः-अन्तर्वोपजाः कर्मभूमिजाश्चेति । तत्रान्तीपा लवणोदधेरभ्यतरे पार्वेऽष्टासु दिक्ष्वष्टौ। तदन्तरेषु चाष्टौ। हिमवच्छिखरिणोरुभयोश्च विजया योरन्तेष्वष्टौ । तत्र विक्षु द्वीपा वेदिकायास्तिर्यक् पञ्चयोजनशतानि प्रविश्य भवन्ति । विदिश्वन्तरेषु च द्वोपाः पञ्चाशत्पञ्चयोजनशतेषु गतेषु भवन्ति । शैलाका विभाग नहीं है । इस पर्वतके उस ओर उपपाद जन्मवाले और समुद्घातको प्राप्त हुए मनुष्योंको छोड़ कर और दूसरे विद्याधर या ऋद्धिप्राप्त मुनि भी कदाचित नहीं जाते हैं इसलिए इस पर्वतका मानुषोत्तर यह सार्थक नाम है। इस प्रकार जम्बूद्वीप आदि ढाई द्वीपोंमें और दो समुद्रोंमें मनुष्य जानना चाहिए।
विशेषार्थ---ढाई द्वीप और इनके मध्यमें आनेवाले दो समुद्र यह मनुष्यलोक है। मनुष्य इसी क्षेत्रमें पाये जाते हैं। मानुषोत्तर पर्वत मनुष्यलोकको सीमापर स्थित होनेसे इसका मानषोत्तर यह नाम सार्थक है । मनुष्य इसी क्षेत्रमें रहते हैं, उनका बाहर जाना सम्भव नहीं, इसका यह अभिप्राय है कि गर्भ में आने के बाद मरण पर्यन्त औदारिक शरीर या आहारक शरीरके साथ वे इस क्षेत्रसे बाहर नहीं जा सकते । सम्मूर्च्छन मनुष्य तो इसके औदारिक शरीर के आश्रयसे होते हैं, इसलिए उनका मनुष्यलोकके बाहर जाना कथमपि सम्भव नहीं है। पर इसका यह अर्थ नहीं है कि किसी भी अवस्थामें मनुष्य इस क्षेत्रके बाहर नहीं पाये जाते हैं। ऐसी तीन अवस्थाएँ हैं जिनके होनेपर मनुष्य इस क्षेत्रके भी बाहर पाये जाते हैं, यथा--(1) जो मनुष्य मरकर ढाई द्वीपके बाहर उत्पन्न होनेवाले हैं वे यदि मरणके पहले मारणान्तिक समुद्घात करते हैं तो इसके द्वारा उनका ढाई द्वापक बाहर गमन देखा जाता है । (2) ढाई द्वीपके बाहर निवास करनेवाले जो जीव मरकर मनुष्यों में उत्पन्न होते है उनके मनुष्यायू और मनुष्य गतिनाम कर्मका उदय होनेपर भी ढाई द्वीप में प्रवेश करनेके पूर्व तक उनका इस क्षेत्रके बाहर अस्तित्व देखा जाता है। (3) केवलिसमूदघातके समय उनका मनुष्यलोकके बाहर अस्तित्व देखा जाता है। इन तीन अपवादों को छोड़कर और किसी अवस्था में मनुष्योंका मनुष्यलोकके बाहर अस्तित्व नहीं देखा जाता । व मनुष्य दा प्रकारक है अब य बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं
मनुष्य दो प्रकारके हैं-आर्य और म्लेच्छ ॥361
8435. जो गुणों या गुणवालोंके द्वारा माने जाते हैं-वे आर्य कहलाते हैं। उनके दो भेद हैं.--ऋद्धिप्राप्त आर्य और ऋद्धिरहित आर्य । ऋद्धिरहित आर्य पाँच प्रकारके हैं-क्षेत्रार्य, जात्यार्य, कार्य, चारित्रार्य और दर्शनार्य । बुद्धि, विक्रिया, तप, बल, औषध, रस और अक्षीण ऋद्धिके भेदसे ऋद्धिप्राप्त आर्य सात प्रकारके हैं। म्लेच्छ दो प्रकारके हैं-अन्तीपज म्लेच्छ और कर्मभूमिज म्लेच्छ । लवणसमुद्रके भोतर आठों दिशाओं में आठ अन्तर्वीप हैं और उनके अन्तरालमें आठ अन्तर्वीप और हैं। तथा हिमवान और शिखरी इन दोनों पर्वतोंके अन्त में और दोनों विजयार्ध पर्वतोंके अन्तमें आठ अन्तर्वीप हैं। इनमें-से जो दिशाओंमें द्वीप हैं वे वेदिकासे 1. --तीयेषु वयोश्च मू। 2. लवणोदे अष्टासु दिवष्टौ आ. दि, 1, दि. 2 । लवणोदधेरभ्यन्तरेऽष्टासु दिक्ष्वष्टौ मु.।
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