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-2018 8 296] द्वितीयोऽध्यायः
[127 को पुनस्तौ द्वौ प्रकारौ ? द्रव्येन्द्रियं भावेन्द्रियमिति। 8 293. तत्र द्रव्येन्द्रियस्वरूपप्रतिपत्त्यर्थमाह
नित्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् ॥17॥ 8 294. निवर्त्यते इति निर्वृत्तिः । केन निर्वय॑ते ? कर्मणा । सा द्विविधा; बाह्याभ्यन्तरभेदात् । उत्सेधागुलासंख्येयभागप्रमितानां शुद्धानामात्मप्रदेशानां प्रतिनियतचक्षुरादीन्द्रियसंस्थानेनावस्थितानां वृत्तिराभ्यान्तरा निर्वृत्तिः । तेष्वात्मप्रदेशेष्विन्द्रियव्यपदेशभाक्षु यः प्रतिनियतसंस्थानो नामकर्मोदयापादितावस्थाविशेषः पुद्गलप्रचयः सा बाह्या निवृत्तिः । येन निवृत्तेरुपकारः क्रियते तदुपकरणम् । पूर्ववत्तदपि द्विविधम् । तत्राभ्यन्तरं कृष्णशुक्लमण्डलं, बाह्यमक्षिपत्रपक्ष्मद्वयादि । एवं शेषेष्वपीन्द्रियेषु ज्ञेयम् । 8295. भावेन्द्रियमुच्यते
लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् ॥18॥ 8 296. लम्भनं लब्धिः । का पुनरसौ ? ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमविशेषः। यत्संनिधानादात्मा द्रव्येन्द्रियनिर्वृत्ति प्रति व्याप्रियते तन्निमित्त आत्मनः परिणाम उपयोगः । तदुभये भावेशंका-वे दो प्रकार कौन हैं ? समाधान-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । 8293. अब द्रव्येन्द्रियके स्वरूपका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं----
निवत्ति और उपकरणरूप द्रव्ये न्द्रिय है ॥17॥ 8 294. रचनाका नाम निर्वृत्ति है । शंका----किसके द्वारा यह रचना की जाती है ? समाधान-कर्म के द्वारा । निर्वृत्ति दो प्रकार की है-बाह्यनिर्वृत्ति और आभ्यन्तर निर्वत्ति। उत्सेधांगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण और प्रतिनियत चक्षु आदि इन्द्रियोंके आकाररूपसे अवस्थित शुद्ध आत्मप्रदेशोंकी रचनाको आभ्यन्तर निवृत्ति कहते हैं । तथा इन्द्रिय नामवाले उन्हीं आत्मप्रदेशोंमें प्रतिनियत आकाररूप और नामकर्मके उदयसे विशेष अवस्थाको प्राप्त जो पुदगलप्रचय होता है उसे बाह्यनिर्वृत्ति कहते हैं। जो निर्वृत्तिका उपकार करता है उसे उपकरण कहते हैं। निर्वृत्तिके समान यह भी दो प्रकारका है----आभ्यन्तर और बाह्य । नेत्र इन्द्रियमें कृष्ण शक्लमण्डल आभ्यन्तर उपकरण है तथा पलक और दोनों बरोनी आदि बाह्य उपकरण हैं। इसी प्रकार शेष इन्द्रियोंमें भी जानना चाहिए। ....विशेषार्थ-आगममें संसारी जीवके प्रदेश चलाचल बतलाये हैं। मध्यके आठ प्रदेश अचल होते हैं और प्रदेश चल । ऐसी अवस्थामें नियत आत्मप्रदेश ही सदा विवक्षित इन्द्रियरूप बने रहते हैं यह नहीं कहा जा सकता, किन्तु प्रदेश परिस्पन्दके अनुसार प्रति समय अन्य-अन्य - प्रदेश आभ्यन्तर निर्वृत्तिरूप होते रहते हैं ऐसा यहाँ समझना चाहिए। जिसके जितनी इन्द्रियाँ होती हैं उसके उतने इन्द्रियावरण कर्मोका क्षयोपशम सर्वांग होता है, इसलिए आभ्यन्तर निवत्तिकी उक्त प्रकारसे व्यवस्था होने में कोई बाधा नहीं आती। यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शेष कथन सुगम है।
8295. अब भावेन्द्रियका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंलब्धि और उपयोगरूप भावेन्द्रिय है।॥18॥
$ 296. लब्धि शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-लम्भनं लब्धि:-प्राप्त होना। शंकालब्धि किसे कहते हैं ? समाधान--ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमविशेषको लब्धि कहते हैं। जिसके 1. निर्वयंत इति मु.। 2. शेषेष्विन्द्रि-मु.।
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