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--2153 $ 364] द्वितीयोऽध्यायः
[147 कथं तेषां सिद्धिः ? वेद्यत इति वेदः । लिंगमित्यर्थः। तद् द्विविधं द्रयलिगं भालिगं चेति । द्रलिंग योनिमेहनादि नामकर्मोदयनिर्वतितम् । नोकषायोदयापादितवृत्ति भालिंगम् । स्त्रीवेदोदयात् स्त्यायस्त्यस्यां गर्भ इति स्त्रो। वेदोदयात् सूते जनयत्यपत्यमिति पुमान् । नपुंसकवेदोदयात्तदुभयशक्तिविकलं नपुंसकम् । रूढिशब्दाश्चैते। रूढिषु च क्रिया व्युत्पत्त्यर्थं च । यथा गच्छतीति गौरिति । इतरथा हि गर्भधारणादिक्रियाप्राधान्ये बालवृद्धानां तिर्यङ्मनुष्याणां देवानां कार्मणकाययोगस्थानां च तदभावात्स्त्रीत्वादिव्यपदेशो न स्यात् । त एते त्रयो वेदाः शेषाणां गर्भजानां भवन्ति।
8364. य इमे जन्मयोनिशरीरलिंगसंबन्धाहितविशेषाः प्राणिनो निर्दिश्यन्ते देवादयो विचित्रधर्माधर्मवशीकृताश्चतसृषु गतिषु शरीराणि धारयन्तस्ते कि यथाकालमुपभुक्तायुषो मूर्त्यन्तराण्यास्कन्दन्ति उतायाकालमपीत्यत आह
औपपादिकचरमोत्तमदेहासंख्येयवर्षायुपोऽनपवायुषः ॥53॥ हैं ? समाधान--स्त्रीवेद, पुरुषवेद, और नपुसकवेद। शंका -इनकी सिद्धि कैसे होती है ? समाधान-जो वेदा जाता है उसे वेद कहते हैं। इसोका दूसरा नाम लिंग है। इसके दो भेद हैं--द्रव्यलिंग और भावलिंग । जो योनि मेहन आदि नामकर्मके उदयसे रचा जाता है वह द्रव्यलिंग है और जिसकी स्थिति नोकषायके उदयसे प्राप्त होती है वह भावलिंग है। स्त्रीवेदके उदयसे जिसमें गर्भ रहता है वह स्त्री है। पूवेदके उदयसे जो अपत्यको जनता है वह प है और नपुसकवेदके उदयसे जो उक्त दोनों प्रकारकी शक्तिसे रहित है वह नपुसक है। वास्तवमें ये तीनों रौढिक शब्द हैं और रूढ़िमें क्रिया व्युत्पत्तिके लिए ही होती है । यथा जो गमन करती है वह गाय है । यदि ऐसा न माना जाय और इसका अर्थ गर्भधारण आदि क्रियाप्रधान लिया जाय तो बालक और वृद्धोंके, तिर्यच और मनुष्योंके, देवोंके तथा कार्मणकाययोगमें स्थित जीवोंके गर्भधारण आदि क्रियाका अभाव होनेसे स्त्री आदि संज्ञा नहीं बन सकती है। ये तीनों वेद शेष जीवोंके अर्थात् गर्भजोंके होते हैं ।
विशेषार्थ - इसी अध्यायमें औदयिक भावोंका निर्देश करते समय उनमें तीन लिंग भी गिनाये हैं। ये तीनों लिंग वेदके पर्यायवाची हैं जो वेद-नोकषायके उदयसे होते हैं । यहाँ किन जीवोंके कौन लिंग होता है इसका विचार हो रहा है। इसी प्रतंगसे आचार्य पूज्यपादने लिंगके दो भेद बतलाये हैं-द्रव्यलिंग और भावलिंग । प्रश्न यह है कि लिंगके ये दो भेद सूत्रोंसे फलित होते हैं या विशेष जानकारीके लिए मात्र टीकाकारने इनका निर्देश किया है। उत्तर स्पष्ट है कि मूल सूत्रोंमें मात्र वेद नोकषायके उदयसे होनेवाले वेदोंका ही निर्देश किया है जैसा कि इसी अध्यायके (वें सूत्रसे ज्ञात होता है।
8364. जो ये देवादिक प्राणी जन्म, योनि, शरीर और लिंगके सम्बन्धसे अनेक प्रकारके बतलाये हैं वे विचित्र पुण्य और पापके वशीभूत होकर चारों गतियोंमें शरीरको धारण करते हुए यथाकाल आयुको भोगकर अन्य शरीरको धारण करते हैं या आयुको पूरा न करके भी शरीरको धारण करते हैं ? अब इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
उपपादजन्मवाले, चरमोत्तमदेहवाले और असंख्यात वर्षकी आयुवाले जीव अनपवयंअन्य आयुवाले होते हैं ।।53।।
1. पुमान् । तदुभय- आ., दि. 1- दि. 21
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