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-316 $ 376] तृतीयोऽध्यायः
[155 6375. देवगतिनामकर्मविकल्पस्यासुरत्वसंवर्तनस्य कर्मण उदयावस्यन्ति परानित्यसुराः। पूर्वजन्मनि भाषितेनातितीवेणं संक्लेशपरिणामेन यदुपार्जितं पापकर्म तस्योदयात्सततं क्लिष्टाः' संक्लिष्टाः, संश्लिष्टा असुराः संश्लिष्टासुराः । संक्लिष्टा इति विशेषणान्न सर्वे असुरा नारकाणां दुःखमुत्पादयन्ति । कि तहि ? अम्बावरीषादय एव केचनेति । अवधिप्रदर्शनार्थ 'प्राक्चतुर्थ्याः' इति विशेषणम् । उपरि तिसृषु पृथ्वीषु संक्लिष्टासुरा बाधाहेतवो नातः परमिति प्रदर्शनार्थम् । 'ई' शवः पूर्वोक्तदुःखहेतुसमुच्चयार्थः । सुतप्तायोरसपायननिष्टप्तायस्तम्भालिङ्गनकूटशाल्मल्यारोहणावतरणायोधनाभिघातवासीक्षरतक्षणक्षारतप्ततलावसेचनायःकुम्भीपाकाम्बरीषभर्जनवैतरगोमज्जनयन्त्रनिष्पीडनादिभिर्नारकाणां दुःखमुत्पादन्ति । एवं छेदनभेदनादिभिः शकलीकृतमूर्तीनामपि तेषां न मरणभकाले भवति । कुतः ? अनपवायुष्कत्वात् । 6376. यद्येवं, तदेव तावदुच्यतां नारकाणामायुःपरिमाणमित्यत आहतेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रस्त्रिशत्सागरोपमा सत्त्वानां
परा स्थितिः ॥6॥ 8375. देवगति नामक नामकर्मके भेदोंमें एक असुर नामकर्म है जिसके उदयसे 'परान् अस्यन्ति' जो दूसरोंको फेंकते हैं उन्हें असुर कहते हैं। पूर्व जन्ममें किये गये अतितीव्र संक्लेशरूप परिणामोंसे इन्होंने जो पापकर्म उपाजित किया उसके उदयसे ये निरन्तर क्लिष्ट रहते हैं इसलिए संक्लिष्ट असुर कहलाते हैं । सूत्रमें यद्यपि असुरोंको संक्लिष्ट विशेषण दिया है पर इसका यह अर्थ नहीं कि सब असुर नारकियोंको दुःख उत्पन्न कराते हैं । किन्तु अम्बावरीष आदि कुछ असुर ही दुःख उत्पन्न कराते हैं । मर्यादाके दिखलानेके लिए सूत्रमें 'प्राक् चतुर्थ्याः' यह विशेषण दिया है । इससे यह दिखलाया है कि ऊपरकी तीन पृथिवियोंमें ही संक्लिष्ट असुर बाधाके कारण हैं, इससे आगे नहीं। सूत्रमें 'च' शब्द पूर्वोक्त दुःखके कारणोंका समुच्चय करनेके लिए दिया है। परस्पर खूब तपाया हुआ लोहेका रस पिलाना, अत्यन्त तपाये गये लौहस्तम्भका आलिंगन, कूट सेमरके वृक्षपर चढ़ाना-उतारना, लोहेके घनसे मारना, बसूला और छुरासे तरासना; तपाये गये
तेलसे सींचना, तेलकी कढाई में पकाना, भाडमें भजना, वैतरणीमें डबाना, यन्त्रसे पेलना आदिके द्वारा नारकियोंके परस्पर दुःख उत्पन्न कराते हैं। इस प्रकार छेदन, भेदन आदिके द्वारा उनका शरीर खण्ड-खण्ड हो जाता है तो भी उनका अकालमें मरण नहीं होता है, क्योंकि उनकी आयु घटती नहीं।
विशेषार्थ-नारक जीव स्वभावसे क्रू र स्वभाववाले होते हैं। एक-दूसरेको देखते ही उनका क्रोध भभक उठता है और वे एक-दूसरेको मारने काटने लगते हैं। उनका शरीर वैक्रियिक होता है इसलिए उससे वे नाना प्रकारके आयुध आदिका आकार धारण कर उनसे दूसरे नारकियोंको पीड़ा पहुँचाते हैं। तीसरे नरक तक देवोंका भी गमन होता है, इसलिए ये भी कुतूहल वश उन्हें आपस में भिड़ा देते हैं और उनका घात-प्रत्याघात देखकर मजा लूटते हैं। पर यह काम सब देव नहीं करते किन्तु अम्बावरीष आदि जातिके कुछ ही असुर कुमार देव करते हैं । इतना सब होते हुए भी उन नारकियोंका अकाल मरण नहीं होता इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए।
6376. यदि ऐसा है तो यह कहिए कि उन नारकियोंकी कितनी आयु है ? इसी बातको बतसानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
उन नरकोंमें जीवोंको उत्कृष्ट स्थिति क्रमसे एक, तीन, सात, बस, सत्रह, बाईस और ततोल सागरोपम है ॥6॥ 1. सम्मनि संभावि- मु.। 2. क्लिष्टाः संक्लिष्टा असुरा: मु.। 3. -पुषस्वात् आ. दि . दि. 2।
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