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-313 § 371]
तृतीयोऽध्यायः
नारका नित्याशुभतरलेश्या परिणाम देहवेदनाविक्रियाः ॥ 3 ॥
8371. लेश्यादयो व्याख्यातार्थाः । अशुभतरा इति प्रकर्षनिवंशः तिर्यग्गतिविष याशुभलेश्याद्यपेक्षया अधोऽधः स्वगत्यपेक्षया च वेदितव्यः । 'नित्य' शब्द ' आभीक्ष्ण्यवचनः । नित्यमशुभतरा लेश्यादयो येषां ते नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रिया नारकाः । प्रथमाद्वितीययोः कापोती लेश्या, तृतीयायामुपरिष्टात्कापोती अधो नीला, चतुर्थ्यां नीला, पञ्चम्यामुपरि नीला अधः कृष्णा, षष्ठ्यां कृष्णा, सप्तम्यां परमकृष्णा । स्वायुः प्रमाणावधूता' द्रव्यलेश्या उक्ताः । भावलेश्यास्तु अन्तर्मुहूर्त परिवर्तन्यः । परिणामाः स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दाः क्षेत्रविशेषनिमित्तवशादतिदुःखहेतवोऽशुभतराः । देहाश्च तेषामशुभनाम' कर्मोदयादत्यन्ताशुभतरा विकृताकृतयो हुण्डसंस्थाना' दुर्दर्शनाः । तेषामुत्सेधः प्रथमायां सप्त धनूंषि त्रयो हस्ताः षडंगुलयः । अधोऽधो- द्विगुणद्विगुण' उत्सेधः । अभ्यन्तरासद्वेद्योदये सति अनाविपारिणामिकशीतोष्णबाह्यनिमित्तजनिता' अतितीव्रा वेदना भवन्ति नारकाणाम् । प्रथमाद्वितीयातृतीयाचतुर्थीषु उष्णवेदनान्येव नरकाणि । पञ्चम्यामुपरि उष्णवेदने द्वे नरकशतसहस्रे । अधः शीतवेदन मेकं शतसहस्रम् । षष्ठीसप्तम्योः शीतवेदनान्येव । शुभं विकरिष्याम इति अशुभतरमेव विकुर्वन्ति, सुख
नारको निरन्तर अशुभतर लेश्या, परिणाम, देह, वेदना और विक्रियावाले हैं ॥3॥
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8371. लेश्यादिकका पहले व्याख्यान कर आये हैं । 'अशुभतर' इस पद के द्वारा तियंचगतिमें प्राप्त होनेवाली अशुभ लेश्या आदिककी अपेक्षा और नीचे-नीचे अपनी गतिकी अपेक्षा लेश्यादिrat प्रकर्षता बतलायी है । अर्थात् तिर्यंचोंमें जो लेश्यादिक हैं उनसे प्रथम नरकके नारकियोंके अधिक अशुभ हैं आदि । नित्य शब्द अभीक्ष्ण्य अर्थात् निरन्तरवाची है । तात्पर्यं यह है कि नारकियोंकी लेश्या, परिणाम, देह, वेदना और विक्रिया निरन्तर अशुभ होते हैं । यथा, प्रथम और दूसरी पृथिवीमें कापोत लेश्या है । तीसरी पृथिवीमें ऊपरके भागमें कापोत लेश्या है और नीचेके भागमें नील लेश्या है। चौथी पृथिवीमें नील लेश्या है । पाँचवीं पृथिवीमें ऊपरके भाग में नील लेश्या है और नीचेके भागमें कृष्ण लेश्या है । छठी पृथिवोमें कृष्ण लेश्या हैं । और सातवीं पृथिवी में परम कृष्ण लेश्या है । द्रव्य लेश्याएँ अपनी आयु तक एक सी कही गयी हैं । किन्तु भावलेश्याएँ अन्तर्मुहूर्त में बदलती रहती हैं । परिणामसे यहाँ स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द लिये गये हैं । ये क्षेत्र विशेषके निमित्तसे अत्यन्त दुःखके कारण अशुभतर हैं। नारकियोंके शरीर अशुभ नामकर्मके उदयसे होनेके कारण उत्तरोत्तर अशुभ हैं । उनकी विकृत आकृति है, हुंड संस्थान है और देखने में बुरे लगते हैं । उनकी ऊँचाई प्रथम पृथिवीमें सात धनुष, तीन हाथ और छह अंगुल है । तथा नीचे-नीचे प्रत्येक पृथिवीमें वह दूनी दूनी है । नारकियोंके अभ्यन्तर कारण असातावेदनीयका उदय रहते हुए अनादिकालीन शीत और उष्णरूप बाह्य निमित्तसे उत्पन्न हुई अति तीव्र वेदना होती है। पहली, दूसरी, तीसरी और चौथी पृथिवीमें मात्र उष्ण वेदनावाले नरक हैं । पाँचवीं पृथिवीमें ऊपरके दो लाख नरक ऊष्ण वेदनावाले हैं । और नीचे एक लाख नरक शीत वेदनावाले हैं। तथा छठी और सातवीं पृथिवीके नरक शीत वेदनावाले ही हैं । नारकी 'शुभ विक्रिया करेंगे' ऐसा विचार करते हैं पर उत्तरोत्तर अशुभ विक्रियाको ही करते हैं । 'सुखकर हेतुओंको उत्पन्न करेंगे' ऐसा विचार करते हैं, परन्तु वे दुःख1. 'अय खलु नित्यशब्दो नावश्यं कूटस्थेष्वविचालिषु भावेषु वर्तते । किं तहि ? अभीक्ष्ण्येऽपि वर्तते । तद्यथानित्यप्रहसितो नित्यप्रजल्पित इति ।' पा. म. भा. पृ. 57 1 2. स्वायुधः प्रमा-मु, ता., ना., । 3. -माणेऽववृता आ., दि. 1, दि. 21 4. नामोदया - आ. दि. 1, दि. 2 1 5. संस्थापना । तेषां. आ., दि 1, दि. 1, दि. 21 6. द्विगुणो द्विगुण आ., दि. 1, दि. 2 । 7. जनिताः सुतीव्रा मु, दि. 1, दि. 2, आ., ता. 8. - वेदनानामेकं आ. दि. 1, दि. 2 1 9. शुभं करि- मु., आ., दि. 1, दि. 2 ।
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