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तृतीयोऽध्याय तनुवातवलयमाकाशप्रतिष्ठम् । आकाशमात्मप्रतिष्ठ, तस्यैवाधाराधेयत्वात् । श्रीण्यप्येतानि वलयानि प्रत्येक विंशतियोजनसहस्रबाहुल्यानि । 'सप्त'ग्रहणं संख्यान्तरनिवृत्त्यर्थम् । सप्त भूमयो नाष्टौ न नव चेति अधोऽधः'वचनं तिर्यक्प्रचयनिवृत्त्यर्थम् ।।
8368. किं ता भूमयो नारकाणां सर्वत्रावासा आहोस्वित्क्वचित्क्वचिदिति प्रन्निर्धारणार्थमाहतनुवातवलय और आकाशके आश्रयसे स्थित हैं इस बातके दिखलानेके लिए सूत्र में 'घनाम्बुमाताकाशप्रतिष्ठाः' पद दिया है । ये सब भूमियाँ घनोदधिवातवलयंके आश्रयसे स्थित हैं । घनोदधिवातवलय धनवातवलयके आधारसे स्थित है। घनवातवलय तनुवातवलयके आश्रयसे स्थित है। तनुवातवलय आकाशके आश्रयसे स्थित हैं और आकाश स्वयं अपने आधारसे स्थित है; क्योंकि वह आधार और आधेय दोनों है। ये तीनों वातवलय प्रत्येक बीस-बीस हजार योजन मोटे हैं। सुत्रमें 'सप्त' पदका ग्रहण दूसरी संख्या निराकरण करनेके लिए दिया है। भूमियाँ सात ही हैं, न आठ हैं और न नौ हैं । ये भूमियाँ तिर्यक् रूपसे अवस्थित नहीं हैं । इस बातको दिखानेके लिए सूत्रमें 'अधोऽधः' यह वचन दिया है।
विशेषार्थ----आकाशके दो भेद हैं-~अलोकाकाश और लोकाकाश। लोकाकाश अलोकाकाशके बीचोंबीच अवस्थित है। यह अकृत्रिम, अनादिनिधन स्वभावसे निर्मित और छह द्रव्योंसे व्याप्त है। यह उत्तर-दक्षिण अधोभागसे लेकर ऊर्ध्वभाग तक विस्तार की अपेक्षा सर्वत्र सात राजु है। पूर्व-पश्चिम नोचे सात राजु चौड़ा है। फिर दोनों ओरसे घटते-घटते सात राजुकी ऊँचाईपर एक राजु चौड़ा है । फिर दोनों ओर बढ़ते-बढ़ते साढ़े दस राजुकी ऊँचाईपर पाँच राजु चौड़ा है । फिर दोनों ओर घटते-घटते चौदह राजुकी ऊँचाईपर एक राजु चौड़ा है। पूर्व पश्चिमकी ओरसे लोकका आकार कटिपर दोनों हाथ रखकर और पैरोंको फैलाकर खड़े ननुष्य के आकारसा प्रतीत होता है। इससे अधोभाग वेतके आसनके समान, मध्यभाग झालरके समान और ऊर्ध्वभाग मदंगके समान दिखाई देता है। इसके तीन भाग हैं.–अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक । मध्यलोकके बीचोंबीच मेरु पर्वत है जो एक लाख चालीस योजन ऊँचा है। उसके नीचेका भाग अधोलोक, ऊपरका भाग ऊर्ध्वलोक और बराबर रेखामें तिरछा फैला हआ मध्यलोक है। मध्यलोकका तिरछा विस्तार अधिक होनेसे इसे तिर्यग्लोक भी कहते हैं। प्रकृत सूत्र में अधोलोकका विचार किया गया है। इसमें सात भूमियाँ हैं जो उत्तरोत्तर नीचे-नीचे हैं पर आपस में भिड़कर नहीं हैं । किन्तु एक दूसरी भूमिके बीच में असंख्य योजनोंका अन्तर है। इन भूमियोंके नाम सूत्र में क्रमसे दिये ही हैं। ये इनके गुणनाम है । घम्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माधवी ये इनके रौढिक नाम हैं। पहली पृथिवी एक लाख अस्सी हजार
जन मोटी है। दूसरा बत्तीस हजार याजन मोटी है, तोसरी अट्राइस हजार योजन मोटी है, चौथी चौबीस हजार योजन मोटी है, पाँचवीं बीस हजार योजन मोटी है, छठी सोलह हजार योजन मोटी है, और सातवीं आठ हजार योजन मोटी है। ये सातों भूमियाँ घनोदधि, घनवात, तनुवात और आकाशके आधारसे स्थित हैं । अर्थात् प्रत्येक पृथिवी घनोदधिके आधारसे स्थित है. घनोदधि धनवातके आधारसे स्थित है, घनवात तनुवातके आधारसे स्थित है, तनुवात आकाशके आधारसे स्थित है और आकाश अपने आधारसे स्थित है।
$368. क्या इन भूमियोंमें सर्वत्र नारकियोंके निवास स्थान हैं या कहीं-कहीं, इस बातका निश्चय करनेके लिए अब आगेका सूत्र कहते हैं
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