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अथ तृतीयोऽध्यायः $ 366. 'भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम्' इत्येवमादिषु नारकाः श्रुतास्ततः पृच्छति के ते नारका इति । तत्प्रतिपादनाथं तदधिकरणनिर्देशः क्रियते
रत्नशर्करावालुकापङ्कधूमतमोमहातमःप्रभा भूमयो . घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताधोऽधः ॥१॥ 800/. रत्नं च शर्करा च वालुका च पडूश्च धूमश्च तमश्च महातमश्च रत्नशर्करावालुकापङ्कधूमतमोमहातमांसि । 'प्रभा' शब्दः प्रत्येक परिसमाप्यते। साहचर्यात्ताच्छन्द्यम् । चित्रादिरत्नप्रभासहचरिता भूमिः रत्नप्रभा, शर्कराप्रभासहचरिता भूमिः शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभासहचरिता भूमिर्वालुकाप्रभा, पङ्कप्रभासहचरिता भूमिः पङ्कप्रभा, धूमप्रभासहचरिता भूमिधूमप्रभा, तमःप्रभासहचरिता भूमिस्तमःप्रभा, महातमःप्रभासहचरिता भूमिर्महातमःप्रभा इति । एताः संज्ञा अनेनोपायेन व्युत्पाद्यन्ते । 'भूमि'ग्रहणमधिकरणविशेषप्रतिपत्त्यर्थम् । यथा स्वर्गपटलानि भूमिमनाश्रित्य व्यवस्थितानि न तथा नारकावासाः। किं तर्हि । भूमिमाश्रिता इति'। आसां भूमीनामालम्बननिर्ज्ञानार्थ घनाम्बूवातादिग्रहणं क्रियते। घनाम्बु च वातश्च आकाशं च धनाम्बुवाताकाशानि । तानि प्रतिष्ठा आश्रयो यासा ता घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः । सर्वा एता भूमयो घनोदधिवलयप्रतिष्ठाः । घनोदधिवलयं धनवातवलयप्रतिष्ठम् । धनवातवलयं तनुवातवलयप्रतिष्ठम् ।
8366. 'भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम्' इत्यादिक सूत्रोंमें नारक शब्द सुना है इसलिए पूछते हैं कि वे नारकी कौन हैं ? अतः नारकियोंका कथन करनेके लिए उनकी आधारभूत प्रथि वियोंका निर्देश करते हैं
रत्नप्रभा, शकराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा,धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातमःप्रभा ये सात भूमियाँ घनाम्बु, वात और आकाशके सहारे स्थित हैं तथा क्रमसे नीचे-नीचे हैं ॥1॥
8367. 'रत्नशर्कराबालुकापंकधूमतमोमहातमाः' इसमें सब पदोंका परस्पर द्वन्द्व समास है। प्रभा शब्दको प्रत्येक शब्दके साथ जोड़ लेना चाहिए। पृथिवियोंकी प्रभा क्रमसे रत्न आदिके समान होनेसे इनके रत्नप्रभा आदि नाम पड़े हैं । यथा-जिसकी प्रभा चित्र आदि रत्नोंकी प्रभाके समान है वह रत्नप्रभा भूमि है । जिसकी प्रभा शर्कराके समान है वह शर्कराप्रभा भूमि है। जिसकी प्रभा बालुकाकी प्रभाके समान है वह वालुका प्रभा भूमि है। जिसकी प्रभा कीचड़के समान है वह पंकप्रभा भूमि है । जिसको प्रभा धुवाके समान है वह धूमप्रभा भूमि है। जिसकी प्रभा अन्धकारके समान है वह तम प्रभा भूमि है और जिसकी प्रभा गाढ अन्धकारके समान है वह महातमःप्रभा भूमि है । इस प्रकार इन नामोंकी व्युत्पत्ति कर लेनी चाहिए। सूत्र में भूमि पदका ग्रहण अधिकरण विशेषका ज्ञान करानेके लिए किया है । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार स्वर्गपटल भमिके बिना स्थित है उस प्रकार नारकियोंके निवासस्थान नहीं हैं। किन्तु वे भूमिके आश्रयसे अवस्थित हैं। इन भूमियोंके आलम्बनका ज्ञान करानेके लिए सूत्र में 'घनाम्बुवात' आदि पदका ग्रहण किया है। अभिप्राय यह है कि ये भूमियाँ क्रमसे घनोदधिवातवलय, घनवातलय, 1.-इति । तासां भूमी- मु., ता., ना.। 2. प्रतिष्ठाः । घनं च घनो मन्दो महान् आयत, इत्यर्थः । अम्बु च जलमु उदकमित्यर्थः। वात-शब्दोऽन्त्यदीपकः । तत एवं संबन्धनीयः । धनो घनवातः । अम्बु अम्बुवातः । वातस्तनुवातः । इति महदपेक्षया तनुरिति सामर्थ्यगम्यः । अन्यः पाठः । सिद्धान्तपाठस्तु घनाम्बु च वातश्चेति । वातशब्दः सोपस्क्रियते । वातस्तनुवात इति वा । सर्वा एता मु., ता., ना.।
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