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--2130 $ 320] द्वितीयोऽध्यायः
[135 $ 316. कालावधारणार्थ 'प्राक्चतुर्म्य' इत्युच्यते। 'प्राग्' इति वचनं मर्यादार्थम्, चतुर्थात्समयात्प्राग्विग्रहवतो गतिर्भवति न चतुर्थे इति । कुत इति चेत् ? सर्वोत्कृष्टविग्रहनिमित्तनिष्कटक्षेत्रे उत्पित्सुः प्राणी निष्कुटक्षेत्रानुपूर्व्यनुश्रेण्यभावादिषु गत्यभावे निष्कुटक्षेत्रप्रापणनिमित्तां त्रिविग्रहां गतिमारभते नोवा॑म् ; तथाविषोपपावक्षेत्राभावात् । 'च'शम्बः समुच्चयार्थः । विग्रहवती चाविग्रहा। चेति। ६ 317. विग्रहवत्या गतेः कालोऽवधृतः । अविग्रहायाः कियान् काल इत्युच्यते
एकसमयाऽविग्रहा ॥29॥ $ 318. एकः समयो यस्याः सा एकसमया । न विद्यते विग्रहो यस्याः सा अविग्रहा । गतिमतां हि जीवपुद्गलानामव्याघातेनैकसमयिकी गतिरालोकान्तादपीति।
$319. अनादिकर्मबन्धसंततौ मिथ्यादर्शनादिप्रत्ययवशात्कर्माण्यावदानो विप्रहगतावत्याहारकः प्रसक्तस्ततो नियमार्थमिदमुच्यते
एक द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः ॥30॥ 8320. अधिकारात्समयाभिसंबन्धः। 'वा'शब्दो विकल्पार्थः । विकल्पश्च यथेच्छातिसर्गः । एकं वा द्वौ वा त्रीन्वा 'समयाननाहारको भवतीत्यर्थः । त्रयाणां शरीराणां षष्णां पर्याप्तीनां
316. कालका अवधारण करनेके लिए 'प्राक्चतुर्व्यः' पद दिया है। 'प्राक्' पद मर्यादा निश्चित करनेके लिए दिया है । चार समयसे पहले मोड़ेवाली गति होती है, चौथे समयमें नहीं यह इसका तात्पर्य है । शंका-मोड़ेवाली गति चार समयसे पूर्व अर्थात् तीन समय तक ही क्यों होती है चौथे समय समयमें क्यों नहीं होती ? समाधान-निष्कुट क्षेत्र में उत्पन्न होनेवाले दूसरे निष्कुट क्षेत्र वाले जीवको सबसे अधिक मोड़े लेने पड़ते हैं, क्योंकि वहाँ आनुपूर्वीसे अनुश्रेणिका अभाव होने से इषुगति नहीं हो पाती। अतः यह जीव निष्कुट क्षेत्रको प्राप्त करनेके लिए तीन
डेवाली गतिका आरम्भ करता है। यहाँ इससे अधिक मोड़ोंकी आवश्यकता नहीं पड़ती. क्योंकि इस प्रकारका कोई उपपादक्षेत्र नहीं पाया जाता, अत: मोड़ेवाली गति तीन समय तक ही होती है, चौथे समयमें नहीं होती। 'च' शब्द समुच्चयके लिए दिया है। जिससे विग्रहवाली और विग्रहरहित दोनों गतियों का समुच्चय होता है।
8317. विग्रहवाली गतिका काल मालूम पड़ा। अब विग्रहरहित गतिका कितना काल है इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
एक समयवाली गति विग्रहरहित होती है ॥29॥
8318. जिस गतिमें एक समय लगता है वह एक समयवाली गति है । जिस गतिमें विग्रह अर्थात् मोड़ा नहीं लेना पड़ता वह मोड़ारहित गति है । गमन करनेवाले जीव और पुद्गलोंके व्याघातके अभावमें एक समयवाली गति लोकपर्यन्त भी होती है यह इस सूत्रका तात्पर्य है।
8319. कर्मबन्धकी परम्परा अनादिकालीन है. अत: मिथ्यादर्शन आदि बन्ध कारणोंके वशसे कर्मोंको ग्रहण करनेवाला जीव विग्रहगतिमें भी आहारक प्राप्त होता है, अतः नियम करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं. एक, दो या तीन समय तक जीव अनाहारक रहता है॥30॥
$ 320 समयका अधिकार होनेसे यहाँ उसका सम्बन्ध होता है। 'वा' पदका अर्थ विकल्प है और विकल्प जहाँ तक अभिप्रेत है वहां तक लिया जाता है । जीव एक समय तक, दो समय 1 चाविग्रहवती चेति मु.। 2. समयोऽस्याः , एक- आ., दि. 1 । समयोऽस्याः सा एक- दि, 2, ता., ना.। 3. -ग्रहोऽस्याः अवि-- आ., दि. 1, ता., ना.। 4. 'कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे ।'-पा. 2, 3,51
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