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----2132 8 324] द्वितीयोऽध्यायः
[137 दुरुपलक्ष्यप्रदेश उच्यते । सह इतरवर्तन्त इति सेतराः । सप्रतिपक्षा इत्यर्थः । के पुनरितरे ? अचितोष्णविवृताः। उभयात्मको मिश्रः। सचित्ताचित्तः शीतोष्णः संवृतविवृत इति । 'च'शब्दः समुच्चयार्थः मिश्राश्च योनयो भवन्तीति । इतरथा हि पूर्वोक्तानामेव विशेषणं स्यात् । 'एकशः' इति वीप्सार्थः । तस्य ग्रहणं क्रममिश्रप्रतिपत्त्यर्थम् । यथैवं विज्ञायेत–सचित्तश्च अचित्तश्च, शीतश्च उष्णश्च, संवृतश्च विवृतश्चेति । मैवं विज्ञायि-सचित्तश्च शीतश्चेत्यादि । 'तद्ग्रहणं जन्मप्रकारप्रतिनिर्देशार्थम । तेषां संमर्छनादीनां जन्मनां योनय इति त एते नव योनयो वेदितव्याः। योनिजन्मनोरविशेष इति चेत् ? न; आधाराधेयभेदात्तदभेदः । त एते सचित्तादयो योनय आधाराः । आधेया जन्मप्रकाराः । यतः सचित्तादियोन्यधिष्ठाने आत्मा संमूर्छनादिना जन्मना शरीराहारेन्द्रियादियोग्यान्पुद्गलानुपादत्ते। देवनारका अचित्तयोनयः। तेषां हि योनिरुपपाददेशपुद्गलप्रचयोऽचित्तः । गर्भजा मिश्रयोनयः । तेषां हि मातुरुदरे शुक्रशोणितमचित्तम्, तदात्मना चित्तवता मिश्रणान्मिश्रयोनिः । संमूर्छनजास्त्रिविकल्पयोनयः। केचित्सचित्तयोनयः अन्ये अचित्तयोनयः । अपरे मिश्रयोनयः । सचित्तयोनयः साधारणशरीराः । कुतः ? परस्पराश्रयत्वात् । इतरे अचित्तयोनयो मिश्रयोनयश्च । शीतोष्णयोनयो देवनारकाः । तेषां हि उपपादस्थानानि गुण दोनोंका वाची है, अतः शीतगुणवाला द्रव्य भी शीत कहलाता है। जो भले प्रकार ढका हो वह संवृत कहलाता है। यहाँ संवत ऐसे स्थानको कहते हैं जो देखने में न आवे । इतर का अर्थ अन्य है और इनके साथ रहनेवाले सेतर कहे जाते हैं । शंका-वे इतर कौन हैं ? समाधानअचित्त, उष्ण और विवृत । जो उभयरूप होते हैं वे मिश्र कहलाते हैं। यथा-सचित्तोचित्त, शीतोष्ण और संवृतविवृत । सूत्रमें 'च' शब्द समुच्चयवाची है। जिससे योनियाँ मिश्र भी होती हैं इसका समुच्चय हो जाता है। यदि 'च' पदका यह अर्थ न लिया जाय तो मिश्रपद पूर्वोक्त पदोंका ही विशेषण हो जाता । 'एकशः' यह पद वीप्सावाची है। सूत्रमें इस पदका ग्रहण क्रम और मिश्रका ज्ञान करानेके लिए किया है । जिससे यह ज्ञान हो कि सचित्त, अचित्त, शीत, उष्ण, संवृत, विवृत इस क्रमसे योनियाँ ली हैं। यह ज्ञान न हो कि सचित्त, शीत इत्यादि क्रमसे योनियाँ ली हैं । जन्मके भेदोंके दिखलानेके लिए सूत्रमें 'तत्' पदका ग्रहण किया है। उन संमूर्छन आदि जन्मोंकी ये योनियाँ हैं यह इसका भाव है। ये सब मिलाकर नौ योनियाँ जानना चाहिए। शंका-योनि और जन्ममें कोई भेद नहीं? समाधान नहीं; क्योंकि आधार और आधेयके भेदसे उनमें भेद हैं। ये सचित्त आदिक योनियाँ आधार हैं और जन्मके भेद आधेय हैं, क्योंकि सचित्त आदि योनिरूप आधारमें संमूर्च्छन आदि जन्मके द्वारा आत्मा शरीर, आहार और इन्द्रियोंके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण करता है। देव और नारकियोंकी अचित्त योनि होती है, क्योंकि उनके उपपाददेशके पूदगलप्रचयरूप योनि अचित्त है। गर्भजोंकी मिश्र योनि होती है, क्योंकि उनकी माताके उदर में शुक्र और शोणित अचित्त होते हैं जिनका सचित्त माताकी आत्मासे मिश्रण है इसलिए वह मिश्रयोनि है। संमूर्च्छनोंकी तीन प्रकारकी योनियाँ होती हैं। किन्हींकी सचित्त योनि होती है, अन्यकी अचित्तयोनि होती है और दूसरोंकी मिश्रयोनि होती है । साधारण शरीरवाले जीवोंकी सचित्त योनि होती है, क्योंकि ये एक-दूसरेके आश्रयसे रहते हैं। इनसे अतिरिक्त शेष संमर्छन जीवोंके अचित्त और मिश्र दोनों प्रकारकी योनियाँ होती हैं। देव और नारकियोंकी शीत और उष्ण दोनों प्रकारको योनियाँ होती हैं; क्योंकि उनके कुछ उपपादस्थान शीत हैं और कुछ उष्ण । तेजस्कायिक जीवोंकी उष्णयोनि होती है। इनसे अतिरिक्त जीवोंकी योनियाँ तोन प्रकारकी होती हैं। किन्हींकी शीत योनियाँ होती हैं, किन्हींकी उष्णयोनियाँ होती हैं और 1.--मिश्रं मिश्रयोनिः आ., दि. 1, दि. 2।
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