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-2136 8331] द्वितीयोऽध्यायः
[13 8 328. अथान्येषां किं जन्मेत्यत आह
शेषाणां संमर्छनम् ॥35।। 8329. गर्भजेभ्य औपपादिकेभ्यश्चान्ये शेषाः । संमूर्छनं जन्मेति। एते त्रयोऽपि योगा नियमार्थाः। उभयतो नियमश्च द्रष्टव्यः । जरायुजाण्डजपोतानामेव गर्भः । गर्भ एव च जरायजाण्डजपोतानाम् । देवनारकाणामेवोपपादः । उपपाद एव च देवनारकाणाम् । शेषाणामेव संमूर्छ। मम् । संमूर्छनमेव शेषाणामिति।
8330. तेषां पुनः संसारिणां त्रिविधजन्मनामाहितबहुविकल्पनवयोनिभेदानां शुभाशुभनामकर्मविपाकनिर्वतितानि बन्धफलानुभवनाधिष्ठानानि शरीराणि कानीत्यत आह
औदारिकवेक्रियिकाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि ॥360 ६ 331. विशिष्टनामकर्मोदयापादितवृत्तीनि शीर्यन्त इति शरीराणि । औदारिकादि. प्रकृतिविशेषोदयप्राप्तवृत्तीनि औदारिकादीनि । उदारं स्थूलम् । उदारे भवं उदारं प्रयोजनमस्येति वा, औदारिकम् । अष्टगुणश्वर्ययोगादेकानेकाणुमहच्छरीरविधिकरणं विक्रिया, सा प्रयोजनमस्येति वैक्रियिकम् । सूक्ष्मपदार्थनिर्ज्ञानार्थमसंयमपरिजिहीर्षया वा प्रमत्तसंयतेनाहियते निर्वय॑ते तदित्याहारकम् । यत्तेजोनिमित्तं तेजसि वा भवं तत्तैजसम् । कर्मणां कार्य कार्मणम् । सर्वेषां कर्मनिमित्तत्त्वेऽपि रूढिवशाद्विशिष्टविषये वत्तिरवसेया।
8328. इनसे अतिरिक्त अन्य जीवोंके कौन-सा जन्म होता है। अब इस बातका ज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
शेष सब जीवोंको सम्मूर्छन जन्म होता है ॥35॥
8329. इस सूत्र में 'शेष' पदसे वे जीव लिये गये हैं जो गर्भ और उपपाद जन्मसे नहीं पैदा होते । इनके संमूर्च्छन जन्म होता है । ये तीनों ही सूत्र नियम करते हैं। और यह नियम दोनों ओरसे जानना चाहिए। यथा-गर्भ जन्म जरायुज, अण्डज और पोत जीवोंका ही होता है। या ज़रायज, अण्डज और पोत जीवों के गर्भजन्म ही होता है। उपपाद जन्म देव और नारकियों के ही होता है या देव और नारकियोंके उफ्पाद जन्म ही होता
न जन्म शेष जीवोंके ही होता है या शेष जीवोंके समर्छन जन्म ही होता है।
330. जो तीन जन्मोंसे पैदा होते हैं और जिनके अपने अवान्तर भेदोंसे युक्त नौ योनियाँ हैं उन संसारी जोवोंके शुभ और अशुभ नामकर्मके उदयसे निष्पन्न हुए और बन्धफलके अनुभव करनेमें आधारभूत शरीर कितने हैं । अब इसी बातको दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण ये पाँच शरीर हैं ॥36॥
8331. जो विशेष नामकर्मके उदयसे प्राप्त होकर शीर्यन्ते अर्थात गलते हैं वे शरीर हैं। , इसके औदारिक आदि पाँच भेद हैं । ये औदारिक आदि प्रकृति विशेषके उदयसे होते हैं। उदार
और स्थूल ये एकार्थवाची शब्द हैं । उदार शब्दसे होनेरूप अर्थमें या प्रयोजनरूप अर्थ में ठक प्रत्यय होकर औदारिक शब्द बनता है । अणिमा आदि आठ गुणोंके ऐश्वर्यके सम्बन्धसे एक, अनेक, छोटा, बड़ा आदि नाना प्रकारका शरीर करना विक्रिया है। यह विक्रिया जिस शरीरका प्रयोजन है वह वैक्रियिक शरीर है । सूक्ष्म पदार्थका ज्ञान करनेके लिए या असंयमको दूर करनेकी इच्छासे प्रमत्तसंयत जिस शरीरकी रचना करता है वह आहारक शरीर है। जो दीप्तिका कारण है या तेजमें उत्पन्न होता है उसे तैजस शरीर कहते हैं। कर्मोका कार्य कार्मण शरीर है। यद्यपि सब शरीर कर्मके निमित्तसे होते हैं तो भी रूढ़िसे विशिष्ट शरीरको कार्मण शरीर कहा है। 1. चेष्टेन्द्रियार्थाश्रयः शरीरम् ।' न्या. सू. 1, 1. 11। 2. उदारे भवमोदारिकम् । उदारं मु.।
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