________________
136] सर्वार्थ सिद्धी
[2131 $ 321योग्यपुद्गलग्रहणमाहारः । तदभावादनाहारकः । कर्मादानं हि निरन्तरं कार्मणशरीरसद्भावे । उपपादक्षेत्रं प्रति ऋज्व्यां गतौ आहारकः । इतरेषु त्रिषु समयेषु अनाहारकः । 8321. एवं गच्छतोऽभिनवमूर्त्यन्तरनिर्वृत्तिप्रकारप्रतिपादनार्थमाह
संमृच्छेनगर्भोपपादा जन्म ॥31॥ 8322. त्रिषु लोकेषूर्वमधस्तिर्यक् च देहस्य समन्ततो मूर्छनं संमूर्छनमवयवप्रकल्पनम् । स्त्रिया उदरे 'शुक्रशोणितयोर्गरणं मिश्रणं गर्भः । मात्रुपभुक्ताहारगरणाद्वा गर्भः। उपेत्य पद्यतेऽस्मिन्निति उपपादः । देवनारकोत्पत्तिस्थानविशेषसंज्ञा। एते त्रयः संसारिणां जीवानां जन्मप्रकाराः शुभाशुभपरिणामनिमित्तकर्मभेदविपाककताः।
323. अथाधिकृतस्य संसारविषयोपभोगोपलब्ध्य धिष्ठानप्रवणस्य जन्मनो योगिविकल्पा वक्तव्या इत्यत आह
सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः ।।32॥ 8324. आत्मनश्चैतन्यविशेषपरिणामश्चित्तम् । सह चित्तेन वर्तत इति सचित्तः। शीत इति स्पर्शविशेषः; शुक्लादिवदुभयवचनत्वात्तद्युक्तं द्रव्यमप्याह' । सम्यग्वृतः संवृतः। संवृत इति तक या तीन समय तक अनाहारक होता है यह इस सूत्रका अभिप्राय है। तीन शरीर और छह पर्याप्तियोंके योग्य पुद्गलोंके ग्रहण करनेको आहार कहते हैं। जिन जीवोंके इस प्रकारका आहार नहीं होता वे अनाहारक कहलाते हैं । किन्तु कार्मण शरीरके सद्भावमें कर्मके ग्रहण करने में अन्तर नहीं पड़ता। जब यह जीव उपपादक्षेत्रके प्रति ऋजुगतिमें रहता है तब आहारक होता है। बाकीके तीन समयोंमें अनाहारक होता है।
8321. इस प्रकार अन्य गतिको गमन करनेवाले जीवके नूतन दूसरे पर्यायकी उत्पत्तिके भेदोंको दिखलाने के लिए आगेका मूत्र कहते है
सम्मूच्र्छन, गर्भ और उपपाद ये (तीन) जन्म हैं॥31॥
8322. तीनों लोकोंमें ऊपर, नीचे और तिरछे देहका चारों ओरसे मूर्च्छन अर्थात् ग्रहण होना संमूर्च्छन है । इसका अभिप्राय है चारों ओरसे पुद्गलोंका ग्रहण कर अवयवोंकी रचना होना । स्त्रीके उदर में शुक्र और शोणितके परस्पर गरण अर्थात् मिश्रणको गर्भ कहते हैं । अथवा माताके द्वारा उपभुक्त आहारके गरण होनेको गर्भ कहते हैं । प्राप्त होकर जिसमें जीव हलनचलन करता है उसे उपपाद कहते हैं। उपपाद यह देव और नारकियोंके उत्पत्तिस्थान विशेषकी संज्ञा है । संसारी जीवोंके ये तीनों जन्मके भेद हैं, जो शुभ और अशुभ परिणामोंके निमित्तसे अनेक प्रकारके कर्म बँधते हैं, उनके फल हैं।
8323. यहाँ तक संसारी विषयोंके उपभोगकी प्राप्तिमें आधारभूत जन्मोंका अधिकार था। अब इनकी योनियोंके भेद कहने चाहिए, इसलिए आगेका सूत्र कहते हैं.---.
सचित्त, शीत और संवत तथा इनकी प्रतिपक्षभूत अचित्त, उष्ण और विवृत तथा मिश्र अर्थात् सचित्ताचित्त, शीतोष्ण और संवृतविवृत ये उसकी अर्थात् जन्मको योनियाँ हैं ॥32॥
8324. आत्माके चैतन्यविशेषरूप परिणामको चित्त कहते हैं। जो चित्तके साथ रहता है वह सचित्त कहलाता है । शीत यह स्पर्शका एक भेद है । शुक्ल आदिके समान यह द्रव्य और 1. -निर्वृत्तिजन्मप्रका- मु.। 2. शुक्लशोणित- ता., ना., दि. 1, मु.। 3. मात्रोपभुक्त- मु.। मात्रोपयुक्त-दि. 1, दि. 2। 4. उपेत्योत्पद्य- मु.। 5. -अध्याधिष्ठा- आ., दि. 1, दि. 2। 6. -कल्पो वक्तव्यः आ. ता., ना.। 7. सम्यग्वृतः संवृत इति आ, दि. 1, दि. 2।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org .