________________
10]
सर्वार्थसिद्धौ
[114817
निर्दिश्यते । इतरथा मोक्षमार्गोऽपि प्रकृतस्तस्याभिसंबन्धः स्यात् । ननु च 'अनन्तरस्य विधिर्वा भवति प्रतिषेधो वा' इत्यनन्तरस्य सम्यग्दर्शनस्य ग्रहणं सिद्धमिति' चेत् ? न, 'प्रत्यासत्तेः प्रधानं बलीय:' इति मोक्षमार्ग एव संबध्येत । तस्मात्तद्वचनं क्रियते ।
17. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनमित्युक्तम् । अथ कि तत्त्वमित्यत इदमाह जीवाजीवात्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ||4||
किया है | अन्तरवर्ती सूत्र में सम्यग्दर्शनका ही उल्लेख किया है उसे ही यहाँ 'तत्' इस पद द्वारा निर्दिष्ट किया गया है। यदि 'तत्' पद न देते तो मोक्षमार्गका प्रकरण होनेसे उसका यहाँ ग्रहण हो जाता । शंका 'अगले सूत्रमें जो विधि-निषेध किया जाता है वह अव्यवहित पूर्वका ही समझा जाता है' इस नियम के अनुसार अनन्तरवर्ती सूत्रमें कहे गये सम्यग्दर्शनका ग्रहण स्वतःसिद्ध है, अतः सूत्रमें 'तत्' पद देनेकी आवश्यकता नहीं है ? समाधान नहीं, क्योंकि 'समीपवर्तीसे प्रधान बलवान् होता है' इस नियमके अनुसार यहाँ मोक्षमार्गका ही ग्रहण होता । किन्तु यह बात इष्ट नहीं है अतः सूत्रमें 'तत्' पद दिया है ।
विशेषार्थ - इस सूत्र में सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके निमित्तोंपर विचार किया गया है। आगममें पाँच लब्धियोंमें एक देशना लब्धि बतलायी है। जिस जीवने वर्तमान पर्याय में या पूर्व पर्याय में कभी भी जीवादि पदार्थविषयक उपदेश बुद्धिपूर्वक नहीं स्वीकार किया है उसे सम्यदर्शनकी प्राप्ति नहीं हो सकती । किन्तु जिस जीवको इस प्रकारके उपदेशका योग बन गया है उसे तत्काल या कालान्तर में सम्यग्दर्शन प्राप्त हो सकता है । यहाँ इसी अपेक्षासे सम्यग्दर्शनके दो भेद किये गये हैं । जो सम्यग्दर्शन वर्तमान में उपदेशके निमित्तसे होता है वह अधिगमज सम्यग्दर्शन है और जो वर्तमान में बिना उपदेशके होता है वह निसर्गज सम्यग्दर्शन है यह इस सूत्रका भाव है । यद्यपि अधिगम शब्दका अर्थ ज्ञान है तथापि प्रकृतमें इसका अर्थ परोपदेशपूर्वक होनेवाला ज्ञान लेना चाहिए । इसीसे निसर्ग शब्दका अर्थ 'परोपदेश के बिना' फलित हो जाता है । यद्यपि इन दोनों सम्यग्दर्शनोंमें दर्शनमोहनीयका उपशम, क्षय या क्षमोपशमरूप अन्तरंग कारण समान है, तथापि बाह्य उपदेश और अनुपदेशकी अपेक्षा इन दोनोंमें भेद है । यहाँ यह शंका उत्पन्न होती है कि क्षायिक सम्यग्दर्शन जब कि केवली और श्रुतकेवलीके पादमूलमें ही होता है तब उसमें सम्यग्दर्शनका निसर्गज भेद न घटकर केवल अधिगमज यही भेद घट सकता है, फिर क्या कारण है कि टीकामें अन्तरंग कारणोंका निर्देश करते समय उपशम और क्षयोपशमके साथ क्षयका भी निर्देश किया है। सो इस शंकाका समाधान यह हैं कि दूसरे और तीसरे नरकसे आकर जो जीव तीर्थंकर होते हैं उनके लिए क्षायिक सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति में परोपदेशकी आवश्यकता नहीं होती, किन्तु परोपदेश के बिना ही उनके क्षायिक सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती हुई देखी जाती है, अतः क्षायिक सम्यग्दर्शनमें भी निसर्गज और अधिगमज ये दो भेद घट जाते हैं । यही कारण है कि प्रकृतमें तीनों प्रकारके सम्यग्दर्शनोंको निसर्गज और अधिगमजके भेदसे दो-दो प्रकारका बतलाया है ।
817 जीवादि पदार्थोंका श्रद्धान करना सम्यग्दशन है यह पहले कह आये हैं । अब तत्व कौन-कौन हैं इस बातके बतलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये तत्त्व हैं ॥4॥
1. 'अनन्तरस्य विधिर्वा भवति प्रतिषेधो वेति । पा. म. भा. पृ. 335। परि. शे. पृ. 380 2. सिद्ध प्रत्या-- दि. 1, दि. 2, आ, अ. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org