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सर्वार्थसिद्धी
[1114 § 186
या अनुदरा कन्या इति । कथमोषदर्थः । इमानीन्द्रियाणि प्रतिनियतवेशविषयाणि कालान्तरावस्थायोनि च । न तथा मनः इन्द्रस्य लिंगमपि सत्प्रतिनियतवेशविषयं कालान्तरावस्थायि च । 8187. तदन्तःकरणमिति चोच्यते । गुणदोषवि वारस्मरणादिव्यापारे इन्द्रियानपेक्षत्वाच्चक्षुरादिवद् बहिरनुपश्धेश्च अन्तर्गतं करणमन्तःकरणमित्युच्यते ।
188 तदिति किमर्थम् । मतिज्ञान निर्देशार्थम् ननु च तदनन्तरं 'अनन्तरस्य विधिव भवति प्रतिषेधो वा' इति तस्यैव ग्रहणं भवति । इहार्थमुत्तरार्थं च तदित्युच्यते । यम्मत्यादिपर्यायशब्दवाच्यं ज्ञानं तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमितं तदेवावप्रहेहावायधारणा इति । इतरथा हि प्रथमं मत्यादिशब्दवाच्यं ज्ञानमित्युक्त्वा इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं श्रुतम् । तदेव विग्रहेहावायधारणा इत्यनिष्टमभिसंबध्येत ।
में 'नत्र का निषेधरूप अर्थ न लेकर 'ईषद्' अर्थ कैसे लिया गया है ? समाधान-ये इन्द्रियाँ नियत देश में स्थित पदार्थोंको विषय करती हैं और कालान्तर में अवस्थित रहती हैं । किन्तु मन इन्द्रका लिंग होता हुआ भी प्रतिनियत देशमें स्थित पदार्थको विषय नहीं करता और कालान्तर में अवस्थित नहीं रहता ।
§ 187. यह अन्तःकरण कहा जाता है । इसे गुण और दोषोंके विचार और स्मरण करने आदि कार्यों में इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं लेनी पड़ती तथा चक्षु आदि इन्द्रियोंके समान इसकी बाहर उपलब्धि भी नहीं होती इसलिए यह अन्तर्गत करण होनेसे अन्तःकरण कहलाता है । इसलिए अनिन्द्रिय में नत्र का निषेधरूप अर्थ न लेकर ईषद् अर्थ लिया गया है।
8188 शंका - सूत्रमें 'तत्' पद किसलिए दिया है ? समाधान - -सूत्र में 'तत्' पद मतिज्ञानका निर्देश करने के लिए दिया है। शंका- मतिज्ञान निर्देश का अनन्तर किया ही है और ऐसा नियम है कि 'विधान या निषेध अनन्तरवर्ती पदार्थका ही होता है' अतः यदि सूत्रमें 'तत्' पद न दिया जाय तो भी मतिज्ञानका ग्रहण प्राप्त होता है ? समाधान - इस सूत्र के लिए और अगले सूत्रके लिए 'तत्' पदका निर्देश किया है । मति आदि पर्यायवाची शब्दोंके द्वारा जो ज्ञान कहा गया है वह इन्द्रिय और अनिन्द्रियके निमित्तसे होता है और उसीके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद हैं, इसलिए पूर्वोक्त दोष नहीं प्राप्त होता । यदि 'तत्' पद न दिया जाये तो मति आदि पर्यायवाची नाम प्रथम ज्ञानके हो जायेंगे और इन्द्रिय- अनिन्द्रियके निमित्त होनेवाला ज्ञान श्रुतज्ञान कहलायेगा और इसीके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद प्राप्त होंगे इस प्रकार अनिष्ट अर्थके सम्बन्धकी प्राप्ति होगी । अतः इस अनिष्ट अर्थ के सम्बन्धके निराकरण करने के लिए सूत्र में 'तत् पद का निर्देश करना आवश्यक है ।
विशेषार्थ - इस सूत्र में मतिज्ञानकी उत्पत्तिके निमित्तोंकी चर्चा करते हुए वे इन्द्रिय और मनके भेदसे दो प्रकारके बतलाये हैं । यद्यपि इस ज्ञानकी उत्पत्तिमें अर्थ और आलोक आदि भी निमित्त होते हैं पर वे अव्यभिचारी कारण न होने से उनका यहाँ निर्देश नहीं किया है। इसकी chara इन्द्रिय- अनिन्द्रिय शब्दका अर्थ क्या है इस पर प्रकाश डालते हुए इन्द्रियोंको जो प्रतिनियत देशको विषय करनेवाला और कालान्तरमें अवस्थित रहनेवाला तथा मनको अनियत देशमें स्थित
1. 'अनुदरा कन्येति ।' पा. म. भा. 61312142 1 2. 'इन्द्रस्य वे सतो मनस इन्द्रियेभ्यः पृथगुपदेशो धर्मभेदात । भौतिकानीन्द्रियाणि नियतविषयाणि, सगुणानां चैषामिन्द्रियभाव इति । मनस्त्व भौतिक सर्वविषयं च... ।' न्या. मा. 11114 | 'सर्वविषयमन्तःकरणं मनः । न्या. मा. 11119 1 3. तं करणमित्यु- मु.
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