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प्रथमोऽध्यायः आ भवझयादाकेवलज्ञानोत्पत्तेर्वा । अन्योऽवधिः सम्यग्दर्शनादिगुणवृद्धिहानियोगाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्ततो वर्धते यावदनेन वषितव्यं होयते च यावदनेन हातव्यं वायुवेगप्रेरितजलोमिवत । एवं षड़विकल्पोऽवधिर्भवति।
$ 216. एवं व्याल्यातमवधिज्ञानं, तदनन्तरमिदानी मनःपर्ययज्ञानं वक्तव्यम् । तस्य भेदपुरःसरं लक्षणं व्याचिख्यासुरिदमाह
___ ऋजुविपुलमती मनःपर्ययः ॥23॥ 8 217. ऋज्वी निर्वतिता प्रगुणा च । कस्मान्निर्वतिता? वाक्कायमनःकृतार्थस्य परमनोगतस्य विज्ञानात । ऋज्वी मतिर्यस्य सोऽय ऋजमतिः । अनिर्वतिता कटिला च विपुलाकर निर्वतिता ? वाक्कायमनःकृतार्थस्य परकीयमनोगतस्य विज्ञानात् । विपुला मतिर्यस्य सोऽयं विपुलमतिः । ऋजुमतिश्च विपुलमतिश्च ऋजुविपुलमती । एकस्य मतिशब्दस्य गतार्थत्वादप्रयोगः । अथवा ऋजुश्च विपुला च ऋजुविपुले । ऋजुविपुले मती ययोस्तो ऋजुविपुलमती इति । स एष मनःपर्यययो द्विविधः ऋजुमतिविपुलमतिरिति।
218. आह, उक्तो भेदः, लक्षणमिदानों वक्तव्यमित्यत्रोच्यते—वीर्यान्तरायमनःपर्ययस्थिर रहनेके कारण जितने परिमाणमें उत्पन्न होता है उतना ही बना रहता है। पर्यायके नाश होने तक या केवलज्ञानके उत्पन्न होने तक शरीरमें स्थित मसा आदि चिह्नके समान न घटता है और न बढ़ता है । कोई अवधिज्ञान वायुके वेगसे प्रेरित जलकी तरंगोंके समान सम्यग्दर्शनादि गुणोंको कभी द्धि और कभी हानि होनेसे जितने परिमाणमें उत्पन्न होता है उससे बढ़ता है जहाँतक उसे बढ़ना चाहिए और घटता है जहाँतक उसे घटना चाहिए । इस प्रकार अवधिज्ञान छह प्रकारका है।
विशेषार्थ-क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञानके तीन भेद हैं—देशावधि, परमावधि और सर्वावधि । देशावधि तिर्यंचों और मनुष्योंके होता है पर मनुष्योंके संयत अवस्थामें परमावधि और सर्वावधिका प्राप्त होना भी सम्भव है। मनुष्योंके चौथे और पाँचवें गुणस्थानमें देशावधि और आगे के गुणस्थानोंमें यथासम्भव तीनों होते हैं । भवप्रत्यय अवधिज्ञानका अन्तर्भाव देशावधिमें होता है।
8216. इस प्रकार अवधिज्ञानका व्याख्यान किया। अब आगे मनःपर्ययज्ञानका व्याख्यान करना चाहिए, अतः उसके भेदोंके साथ लक्षणका कथन करनेकी इच्छासे आगेका सूत्र कहते हैं
ऋजुमति और विपुलमति मनःपर्ययज्ञान है ।।23।।
8 217. ऋजुका अर्थ निर्वतित और प्रगुण है । शंका-किससे निर्वतित ? समाधानदुसरेके मनको प्राप्त हुए वचन, काय और मनकृत अर्थके विज्ञानसे निर्वर्तित। जिसकी मति ऋजु है वह ऋजुमति कहलाता है । विपुलका अर्थ अनिर्वतित और कुटिल है। शंका-किससे अनिवर्तित ? समाधान-दूसरेके मनको प्राप्त हुए वचन, काय और मनकृत अर्थके विज्ञानसे अनिवर्तित । जिसको मति विपुल है वह विपुलमति कहलाता है। सूत्रमें जो 'ऋजुविपुलमती' पद आया है वह ऋजुमति और विपुलमति इन पदोंसे समसित होकर बना है। यहाँ एक ही मति शब्द पर्याप्त होनेसे दूसरे मति शब्दका प्रयोग नहीं किया । अथवा ऋजु और विपुल शब्दका कर्मधारय समास करनेके बाद इनका मति शब्दके साथ बहुव्रीहि समास कर लेना चाहिए । तब भी दूसरे मति शब्दकी आवश्यकता नहीं रहती। यह मनःपर्ययज्ञान दो प्रकारका है-ऋजुमति और विपुलमति।
8218. शंका-मनःपर्ययज्ञानके भेद तो कह दिये। अब उसका लक्षण कहना चाहिए।
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