________________
सर्वार्थसिद्धी
[11228 215क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषारणाम ॥22॥ 8215. अवधिज्ञानावरणस्य देशघातिस्पर्द्धकानामुदये सति सर्वघातिस्पर्द्धकानामुदयाभावः क्षयः तेषामेवानुदयप्राप्तानां सदवस्था उपशमः । तौ निमित्तमस्येति क्षयोपशमनिमित्तः । स शेषाणां वेदितव्यः । के पुनः शेषाः ? मनुष्यास्तिर्यञ्चश्च । तेष्वपि यत्र सामर्थ्यमस्ति तत्रैव वेदितव्यः। न ह्यसंजिनामपर्याप्तकानां च तत्सामर्थ्यमस्ति । संजिनां पर्याप्तकानां च न सर्वेषाम् । केर्षा हि ? यथोक्तसम्यग्दर्शनादिनिमित्तसंनिधाने सति शान्तक्षीणकर्मणां तस्योपलब्धिर्भवति । सर्वस्य क्षयोपशमनिमित्तत्वे क्षयोपशमग्रहणं नियमार्थ क्षयोपशम एव निमित्तं न भव इति । स एषोऽवधिः षड्विकल्पः । कुतः? अनुगाम्यननुगामिवर्धमानहीयमानावस्थितानवस्थितभेदात्। कश्चिदवधिर्भास्करप्रकाशवद् गच्छन्तमनुगच्छति । कश्चिन्नानुगच्छति तत्रैवातिपतति उन्मुखप्रश्नादेशिपुरुषवचनवत् । अपरोऽवधिः अरणिनिर्मथनोत्पन्नशुष्कपर्णोपचीयमानेन्धननिचयसमिद्ध पावकवत्सम्यग्दर्शनादिगुणविशुद्धिपरिणामसंनिधानाधत्परिमाण उत्पन्नस्ततो वर्द्धते आ असंख्येयलोकेभ्यः । अपरोऽवधिः परिच्छिन्नोपादानसंतत्यग्निशिखावत्सम्यग्दर्शनादिगुणहानिसंक्लेशपरिणामवृद्धियोगाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्ततो हीयते आ अगुलस्यासंख्येयभागात् । इतरोऽवधिः सम्यग्दर्शनादिगुणावस्थानाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्तत्परिमाण एवावतिष्ठते; न हीयते नापि वर्धते लिङ्गवत्
क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञान छह प्रकारका है, जो शेष अर्थात् तिर्यंचों और मनुष्योंके होता है ॥22॥
8 215. अवधिज्ञानावरण कर्मके देशघाती स्पर्धकोंका उदय रहते हुए सर्वघाति स्पर्धकोंका उदयाभावी क्षय और अनुदय प्राप्त इन्हींका सदवस्थारूप उपशम इन दोनोंके निमित्तसे जो होता है वह क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञान है । यह शेष जीवोंके जानना चाहिए। शंकाशेष कौन हैं ? समाधान-मनुष्य और निर्यच । उनमें भी जिनके सामर्थ्य है उन्हींके जानना चाहिए । असंज्ञी और अपर्याप्तकोंके यह सामर्थ्य नहीं है । संज्ञी और पर्याप्तकोंमें भी सबके यह सामर्थ्य नहीं होती । शंका-तो फिर किनके होती है ? समाधान-यथोक्त सम्यग्दर्शन आदि निमित्तोंके मिलने पर जिनके अवधिज्ञानावरण कर्म शान्त और क्षीण हो गया है उनके यह सामर्थ्य होती है । अवधिज्ञान मात्र क्षयोपशमके निमित्तसे होता है तो भी सूत्रमें क्षयोपशम पदका ग्रहण यह नियम करनेके लिए किया है कि उक्त जीवोंके मात्र क्षयोपशम निमित्त है भव नहीं। यह अवधिज्ञान अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थितके भेदसे छह प्रकारका है। कोई अवधिज्ञान जैसे सूर्य का प्रकाश उसके साथ जाता है वैसे अपने स्वामी का अनुसरण करता है । कोई अवधिज्ञान अनुसरण नहीं करता,किंतु जैसे विमुख हुए पुरुषके प्रश्नके उत्तरस्वरूप दूसरा पुरुष जो वचन कहता है वह वहीं छूट जाता है, विमुख पुरुष उसे ग्रहण नहीं करता है वैसे ही यह अवधिज्ञान भी वहींपर छूट जाता है। कोई अवधिज्ञान जंगलके निर्मन्थनसे उत्पन्न हई और सूखे पत्तोंसे उपचीयमान ईधनके समुदायसे वृद्धिको प्राप्त हुई अग्निके समान सम्यग्दर्शनादि गुणोंकी विशुद्धिरूप परिणामोंके सन्निधानवश जितने परिमाणमें उत्पन्न होता है उससे असंख्यात लोक जानने की योग्यता होने तक बढ़ता जाता है। कोई अवधिज्ञान परिमित उपादानसन्ततिवाली अग्निशिखाके समान सम्यग्दर्शनादि गुणोंकी हानिसे हुए संक्लेश परिणामोंके बढनेसे जितने परिमाणमें उत्पन्न होता है उससे मात्र अंगलके असंख्यातवें भागप्रमाण जाननेकी योग्यता होने तक घटता चला जाता है। कोई अवधिज्ञान सम्यग्दर्शनादि गुणोंके समानरूपसे 1. 'सेसाण खओवसमियाओ।'–वि. भा. गा.5751 2. तति । उन्मुग्धप्र-ता., ना., मु.। 3. -वधिः परिमितपरि-मु.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org