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सर्वार्थसिद्धौ
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8212. व्याख्यातं परोक्षम । प्रत्यक्षमिदानी वक्तव्यम। तद द्वेधा-वेशप्रत्यक्षं सर्वप्रत्यक्षं च । देशप्रत्यक्षमवधिमनःपर्ययज्ञाने। सर्वप्रत्यक्ष केवलम् । यद्यवमिदमेव तावदवधिज्ञानं त्रिःप्रकारस्य प्रत्यक्षस्याद्यं व्याक्रियतामित्यत्रोच्यते-द्विविधोऽवधिर्भवप्रत्ययः क्षयोपशमनिमित्तश्चेति । तत्र भवप्रत्यय उच्यते--
भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकारणाम् ॥21॥ शिष्योंका उपकार करने के लिए दशवकालिक आदि ग्रन्थ रचे । जिस प्रकार क्षीरसागरका जल घटमें भर लिया जाता है उसी प्रकार ये ग्रन्थ भी अर्थरूपसे वे ही हैं, इसलिए प्रमाण हैं।
विशेषार्थ-मतिज्ञान श्रुतज्ञानका कारण किस रूपमें है, मतिज्ञान और श्रुतज्ञानमें अन्तर क्या है, श्रुत अनादिनिधन और सादि कैसे है, श्रुतके भेद कितने और कौन-कौन हैं, श्रुतमें प्रमाणता कैसे आती है इत्यादि बातोंका विशेष विचार तो मूलमें किया ही है । यहाँ केवल विचारणीय विषय यह है कि श्रुतज्ञानका निरूपण करते समय सूत्रकारने केवल द्रव्य आगम श्रुतका ही निरूपण क्यों किया? अनुमान आदि ऐसे बहत-से ज्ञान हैं जिनका अन्तर्भाव श्रतज्ञानमें किया जाता है फिर उनका निर्देश यहाँ क्यों नहीं किया ? क्या श्रुतज्ञान द्रव्य आगम श्रुतके ज्ञान तक ही सीमित है और अनुमान आदिका अन्तर्भाव सूत्रकारके मतानुसार मतिज्ञानमें होता है ? ये ऐसे विचारणीय प्रश्न हैं जिनका प्रकृतमें समाधान करना आवश्यक है। बात यह है कि जैन परम्परामें द्रव्य आगम श्रुतकी प्रधानता सदासे चली आ रही है, इसलिए सूत्रकारने श्रुतज्ञानके निरूपणके समय उसका प्रमुखतासे निर्देश किया है। पर इसका यह तात्पर्य नहीं कि श्रुतज्ञान द्रव्य आगम श्रुतके ज्ञान तक ही सीमित है। मतिके सिवा मतिपूर्वक होनेवाले अन्य अनुमान आदि सब परोक्ष ज्ञानाका अन्तभाव श्रुतज्ञानमें ही होता है, क्योंकि इन ज्ञानोंमें हेतु आदिका प्रत्यक्ष ज्ञान आदि होने पर ही इन ज्ञानोंकी प्रवृत्ति होती है। उदाहरणार्थ, नेत्र इन्द्रियसे धमका ज्ञान होता है । अनन्तर व्याप्तिका स्मरण होता है तब जाकर 'यहाँ अग्नि होनी चाहिए' यह अनुमान होता है। कहीं-कहीं मतिज्ञानमें भी इनके अन्तर्भावका निर्देश मिलता है पर वह कारणरूपसे ही जानना चाहिए । मतिज्ञान श्रुतज्ञानको उत्पत्तिमें निमित्त है, इसलिए कारणमें कार्यका उपचार करके कहीं-कहीं अनुमान आदिका भी मतिज्ञानरूपसे निर्देश किया जाता है। एक बात और विचारणीय है, वह यह कि यह श्रुतज्ञानका प्रकरण है द्रव्यश्रुतका नहीं, इसलिए यहाँ सूत्रकारने श्रुतज्ञानके भेद न दिखलाकर द्रव्यश्रुतके भेद क्यों दिखलाये ? उत्तर यह है कि श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमका और द्रव्यश्रुतका अन्योन्य सम्बन्ध है । क्षयोपशमके अनुसार होनेवाले श्रुतज्ञानको ध्यानमें रखकर ही द्रव्यश्रुतका विभाग किया गया है । यही कारण है कि यहाँ श्रुतज्ञानका प्रकरण होते हुए भी द्रव्यश्रुतके भेद गिनाये गये हैं। इस बातकी विशेष जानकारीके लिए गोम्मटसार जीवकाण्डमें निर्दिष्ट ज्ञानमार्गणा द्रष्टव्य है।
8212. परोक्ष प्रमाणका व्याख्यान किया । अब प्रत्यक्ष प्रमाणका व्याख्यान करना है। वह दो प्रकारका है-देशप्रत्यक्ष और सर्वप्रत्यक्ष । देशप्रत्यक्ष अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके भेदसे दो प्रकारका है। सर्वप्रत्यक्ष केवलज्ञान है । यदि ऐसा है तो तीन प्रकारके प्रत्यक्षके आदिमें कहे गये अवधिज्ञानका व्याख्यान करना चाहिए, इसलिए कहते हैं-अवधिज्ञान दो प्रकारका है-भवप्रत्यय और क्षयोपशमनिमित्तक । उनमें से सर्वप्रथम भवप्रत्यय अवधिज्ञानका अगले सत्र द्वारा कथन करते हैं
भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारकियोंके होता है ॥21॥ 1. -त्यक्षं सकलप्र--मु.।
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