________________
1121 सर्वार्थसिद्धौ
-214 $ 262] 8 262. य उक्तः क्षायोपशमिको भावोऽष्टादशविकल्पस्तभेदनिरूपणार्थमाह-- ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च ॥5॥
६ 263. चत्वारश्च त्रयश्च त्रयश्च पञ्च च चतुस्त्रित्रिपञ्च । ते भेदाः यासां ताश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदाः। यथाक्रममित्यनुवर्तते। तेनाभिसंबन्धाच्चतरादिभिर्ज्ञानादीन्यभिसंबध्यन्ते। चत्वारि ज्ञानानि, त्रीण्यज्ञानानि, त्रीणि दर्शनानि, पञ्च लब्धय इति। सर्वघातिस्पर्द्धकानामुदयवर्षा करते हैं। छप्पन कुमारिकाएँ आकर माताकी सेवा करती हैं, गर्भशोधन करती हैं, रक्षा करती हैं। तीर्थंकरके गर्भ में आनेपर देव-देवियाँ उत्सव मनाते हैं। जन्म, तप, केवल और निर्वाणके समय भी ऐसा ही करते हैं। केवलज्ञान होनेके बाद समवसरणकी रचना करते हैं, कुसुमवृष्टि करते हैं आदि । इसलिए मुख्यतः ये अभयदानादि देवादिकोंकी भक्ति और धर्मानुरागके कार्य हैं, शरीर नामकर्म और तीर्थकर नामकर्मकी अपेक्षा रखनवाले क्षायिक दान आदिके नहीं। फिर भी इन अभयदानादिको उपचारसे इनका कार्य कहा है। ऐसा नहीं माननेपर ये तीन दोष आते हैं--1. निर्वाण कल्याणकके समय शरीर नामकर्म और तीर्थकर नामकर्म नहीं रहता, इसलिए वह नहीं बन सकेगा। 2. गर्भमें आनेके पहले जो रत्नवर्षा आदि कार्य होते हैं उन्हें अकारण मानना पड़ेगा। 3. गर्भ, जन्म और तप कल्याणकके समय न तो क्षायिक दान आदि ही पाये जाते हैं और न तीर्थकर प्रकृतिका उदय ही रहता है, इसलिए इन कारणोंके
वसे इन्हें भी अकारण मानना पडेगा । इन सब दोषोंसे बचनेका एक ही उपाय है कि पांच कल्याणकोंको और समवसरण आदि बाह्य विभूतिको देवादिककी भक्ति और धर्मानुरागका कार्य मान लिया जाय । जिस प्रकार जिन-प्रतिमाका अभिषेक आदि महोत्सव भी इसीके कार्य हैं इसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिए। इसपर यह प्रश्न होता है कि उक्त कार्य भले ही देवादिककी भक्ति और धर्मानुराग वश होते हों पर जन्मकल्याणकके समय जो घण्टानाद आदि कार्य विशेष होते हैं उनका कारण तो धर्मानुराग और भक्ति नहीं है । यदि उनका कारण पुण्यातिशय माना जाता है तो शेष कार्योंका कारण पुण्यातिशय मानने में क्या आपत्ति है ? समाधान यह है कि जिस प्रकार एक अवपिणी या उत्सपिणीमें चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ नारायण, नौ प्रतिनारायण और नौ बलभद्र आदिके होनेका नियम है-यह कर्म विशेषका कार्य नहीं। उस-उस कालके साथ ऐसा ही निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है कि इस काल में इतने तीर्थंकर, इतने चक्रवर्ती आदि ही होंगे न्यूनाधिक नहीं, इसी प्रकार तीर्थकरके जन्मकालके साथ ऐसा हो निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है कि इस समय अमुक स्थानके अमक प्रकारके बाजे बजेंगे, इसलिए इसे कर्म विशेषका कार्य मानना उचित नहीं। कर्मकी अपनी मर्यादाएँ हैं। उन तक ही वह सीमित है। फिर भी मूलमें जिस स्थितिके रहते हुए ये कार्य होते हैं उस स्थितिको ध्यानमें रखकर उपचारसे उस स्थितिको इनका कारण कहा है। शेष कथन सुगम है।।
8 262. जो अठारह प्रकारका क्षायोपशमिक भाव कहा है उसके भेदोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
क्षायोपशमिक भावके अठारह भेद हैं-चार ज्ञान, तीन अज्ञान, तीन दर्शन, पाँच दानादि लब्धियाँ, सम्यक्त्व, चारित्र और संयमासंयम ।।5।।
$ 263. जिनक चार. तीन, तीन और पाँच भेद हैं वे चार, तीन, तीन और पांच भेदवाले कहलाते हैं । इस.सूत्रमें 'यथाक्रमम्' पदकी अनुवृत्ति होती है, जिससे चार आदि पदोंके साथ ज्ञान आदि पदोंका क्रमसे सम्बन्ध होता है । यथा-चार ज्ञान, तीन अज्ञान, तीन दर्शन और पाँच 1, पञ्च भेदा यासां-मु. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org