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116] सर्वार्थसिद्धौ
[217 8 268त्रयो भावा जीवस्य पारिणामिकाः।
8 269. ननु चास्तित्वनित्यत्वप्र'देशवत्त्वादयोऽपि भावाः पारिणामिकाः सन्ति, तेषामिह ग्रहणं कर्तव्यम् । न कर्तव्यम् ; कृतमेव । कथम् ? 'च''शब्देन समुच्चितत्वात् । यद्येवं त्रय इति संख्या विरुध्यते । न विरुध्यते, असाधारणा जीवस्य भावाः पारिणामिकास्त्रय एव । अस्तित्वादयः पुनर्जीवाजीवविषयत्वात्साधारणा इति 'च'शब्देन पृथग्गृह्यन्ते। आह, औपशमिकादिभावानुप'पत्तिरमूर्तत्वादात्मनः । कर्मबन्धापेक्षा हि ते भावाः । न चामूर्तेः कर्मणां बन्धो युज्यत इति । तन्न; अनेकान्तात् । नायमेकान्तः अमूतिरेवात्मेति । कर्मबन्धपर्यायापेक्षया तदावेशात्स्यान्मूर्तः । शुद्धस्वरूपापेक्षया स्यादमूर्तः । यद्येवं कर्मबन्धावेशादस्यैकत्वे सत्यविवेकः प्राप्नोति । नैष दोषः; बन्धं प्रत्येकत्वे सत्यपि लक्षणभेदादस्य नानात्वमवसीयते । उक्तं च--
"बंधं पडि एयत्तं लक्खणदो हवइ तस्स णाणत्तं ।
तम्हा अमुत्तिभावो यंतो होइ जीवस्स ।।" इति । अर्थ चैतन्य है। जिसके सम्यग्दर्शन आदि भाव प्रकट होने की योग्यता है । वह भव्य कहलाता है। अभव्य इसका उलटा है। ये तीनों जीवके पारिणामिक भाव हैं।
8269. शंका--अस्तित्व, नित्यत्व और प्रदेशवत्त्व आदिक भी भाव हैं उनका इस सूत्रमें ग्रहण करना चाहिए ? समाधान-अलगसे उनके ग्रहण करनेका कोई काम नहीं; क्योंकि उनका ग्रहण किया ही है । शंका-कैसे ? समाधान-क्योंकि सूत्रमें आये हुए 'च'शब्दसे उनका समुच्चय हो जाता है । शंका-यदि ऐसा है तो 'तीन' संख्या विरोधको प्राप्त होती है, क्योंकि इस प्रकार तीनसे अधिक पारिणामिक भाव हो जाते हैं ? समाधान-तब भी 'तीन' यह संख्या विरोधको नहीं प्राप्त होती, क्योंकि जीवके असाधारण पारिणामिक भाव तीन ही हैं। अस्तित्वादिक तो जीव और अजीव दोनोंके साधारण हैं इसलिए उनका 'च'शब्दके द्वारा अलगसे ग्रहण किया है। शंका-औपशमिक आदि भाव नहीं बन सकते; क्योंकि आत्मा अमूर्त है। ये औपशमिक आदि भाव कर्मबन्धको अपेक्षा होते हैं परन्तु अमूर्त आत्माके कर्मोंका बन्ध नहीं बनता है ? समाधान-यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि आत्माके अमर्तत्वके विषयमें अनेकान्त है। यह कोई एकान्त नहीं कि आत्मा अमूर्त ही है । कर्मबन्धरूप पर्यायकी अपेक्षा उसका आवेश होने के कारण कथंचित् मूर्त है और शुद्ध स्वरूपको अपेक्षा कथंचित् अमूर्त है । शंका-यदि ऐसा है तो कर्मबन्धके आवेशसे आत्माका ऐक्य हो जानेपर आत्माका उससे भेद नहीं रहता ? समाधानयह कोई दोष नहीं, क्योंकि यद्यपि बन्धकी अपेक्षा अभेद है तो भी लक्षणके भेदसे कर्मसे आत्माका भेद जाना जाता है। कहा भी है
'आत्मा बन्धकी अपेक्षा एक है तो भी लक्षणकी अपेक्षा वह भिन्न है। इसलिए जीवका अमूर्तिकभाव अनेकान्तरूप है । वह एक अपेक्षासे है और एक अपेक्षासे नहीं है।
विशेषार्थ—पारिणामिक भाव तीन हैं --जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व । जीवत्वके दो भेद हैं—एक जीवन-क्रियासापेक्ष और दूसरा चैतन्यगुणसापेक्ष । जीवनक्रिया प्राणसापेक्ष होती है, इसलिए ऐसे जीवत्वकी मुख्यता नहीं है, यहाँ तो चैतन्यगुणसापेक्ष जीवत्वकी ही मुख्यता है । यह सब जीवोंमें समानरूपसे पाया जाता है और कारणनिरपेक्ष होता है, इसलिए इसे पारिणामिक कहा है। यही बात भव्यत्व और अभव्यत्वके सम्बन्धमें भी जाननी चाहिए, क्योंकि ये दोनों भाव भी कारणनिरपेक्ष होते हैं । साधारणतः जिनमें रत्नत्रय गुण प्रकट होनेकी योग्यता होती है वे 1. प्रदेशत्वा-आ., दि. 1 दि. 2, मु.। 2. कथं चेच्चशब्देन मु.। कथं चेतनशब्देन आ.। 3. ते । न चामूर्तेः कर्मणा आ. दि. 1, दि. 2; ता., ना.। 4. प्रत्येकत्वे (विवेके) सत्य-मु.।
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