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द्वितीयोऽध्यायः
8270. यद्येवं तदेव लक्षणमुच्यतां येन नानात्वमवसीयते इत्यत आहउपयोगो लक्षणम् ॥8॥
-219 § 273]
8271. उभयनिमित्तवशादुत्पद्यमानश्चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोगः । तेन बन्धं प्रत्येकत्वे सत्यप्यात्मा लक्ष्यते सुवर्णरजतयोर्बन्धं प्रत्येकत्वे सत्यपि वर्णादिभेदवत् । $ 272 तद्भेदप्रदर्शनार्थमाह
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सद्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ॥ 9॥
8273. स उपयोगो द्विविधः -- ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगश्चेति । ज्ञानोपयोगोऽष्टभेदःमतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं मन:पर्ययज्ञानं केवलज्ञानं मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभङ्गज्ञानं चेति । दर्शनोपयोगश्चतुर्विधः -- चक्षुर्दर्शनमचक्षुदर्शनमवधिदर्शनं केवलदर्शनं चेति । तयोः कथं भेदः ? भव्य कहलाते हैं और जिनमें ऐसी योग्यता नहीं होती उन्हें अभव्य कहते | जीव में ये दोनों प्रकारकी योग्यताएँ स्वभावसे होती हैं । इसीसे भव्यत्व और अभव्यत्व ये दोनों भाव भी पारिमिक माने गये हैं । अभिप्राय यह है कि किन्हीं जीवोंका स्वभावसे अनादि-अनन्त बन्ध होता है और किन्हींका अनादिसान्त । जीवोंका इस तरहका बन्ध कारणनिरपेक्ष होता है । यह किसी कर्मविशेषका कार्य नहीं है, किन्तु ऐसी योग्यता पारिणामिक मानी गयी है । इसीसे जीवत्वके साथ भव्यत्व और अभव्यत्व ये दोनों भाव भी कहे गये हैं । यद्यपि जीवमें अस्तित्व आदि और बहुत से पारिणामिक भाव पाये जाते हैं पर वे जीवके असाधारण धर्म न होनेसे उनकी यहाँ परिगणना नहीं की गयी है ।
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इन भावोंके सम्बन्धमें मुख्य प्रश्न यह है कि जब कि जीव अमूर्त है ऐसी दशा में उसका कर्म के साथ बन्ध नहीं हो सकता और कर्मबन्ध के अभाव में औपशमिक आदि भावोंकी उत्पत्ति नहीं बन सकती, क्योंकि पारिणामिक भावोंके सिवा शेष भाव कर्मनिमित्तक माने गये हैं ? उत्तर यह है कि कर्मका आत्मासे अनादि सम्बन्ध है, इसलिए कोई दोष नहीं आता । आशय यह है कि संसार अवस्थामें जीवका कर्मके साथ अनादिकालीन बन्ध होनेके कारण वह व्यवहारसे मूर्त हो रहा है। और यह बात असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि मदिरा आदिका सेवन करनेपर ज्ञानमें मूर्च्छा देखी जाती है । पर इतने मात्र से आत्माको मूर्तस्वभाव नहीं माना जा सकता, क्योंकि रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये पुद्गल के धर्म हैं । आत्मा मूर्तरूप इन धर्मोसे भिन्न उपयोगस्वभाववाला है। 8270. यदि ऐसा है तो वही लक्षण कहिए जिससे कर्मसे आत्माका भेद जाना जाता है, इसी बात को ध्यान में रखकर आगेका सूत्र कहते हैं
उपयोग जीवका लक्षण है ॥8॥
$ 271. जो अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकारके निमित्तोंसे होता है और चैतन्यका अन्वयी है अर्थात् चैतन्यको छोड़कर अन्यत्र नहीं रहता वह परिणाम उपयोग कहलाता । यद्यपि आत्मा बन्धकी अपेक्षा एक है तो भी इससे वह स्वतन्त्र जाना जाता है । जिस प्रकार स्वर्ण और चाँदी बन्धकी अपेक्षा एक हैं तो भी वर्णादिके भेदसे उनमें पार्थक्य रहता है उसीप्रकार प्रकृतमें समझना चाहिए ।
8272. अब उपयोग के भेद दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
वह उपयोग दो प्रकारका है-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । ज्ञानोपयोग आठ प्रकारका है और दर्शनोपयोग चार प्रकारका है ॥9॥
8273. वह उपयोग दो प्रकारका है, ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । ज्ञानोपयोग आठ प्रकारका है - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान, मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान,
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