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86] सर्वार्थसिद्धौ
[1120 8 207६ 207. आह, श्रुतमनादिनिधनमिष्यते । तस्य मतिपूर्वफत्वे तदभावः; आदिमतोऽन्तवत्त्वात् । ततश्च 'पुरुषकृतित्वादप्रामाण्यमिति ? नैष दोषः; द्रव्यादिसामान्यार्पणात् श्रुतमनादिनिधनमिष्यते । न हि केनचित्पुरुषेण क्वचित्कदाचित्कथंचिदुत्प्रेक्षितमिति । तेषामेव विशेषापेक्षया आदिरन्तश्च संभवतीति 'मतिपूर्वम्' इत्युच्यते।. ययाङ्कुरो बीजपूर्वकः स च संतानापेक्षया अनादिनिधन इति। न. चापौरुषेयत्वं प्रामाण्यकारणम् ; चौर्याधुपदेशस्यास्मर्यमाणकर्तृ कस्य प्रामाण्यप्रसङ्गात् । अनित्यस्य च प्रत्यक्षादेः प्रामाण्ये को विरोधः।
$ 208. आह, 'प्रयमसम्यक्त्वोत्पत्तौ युगपज्ज्ञानपरिणामान्मतिपूर्वकत्वं श्रुतस्य नोपपद्यत इति ? तदयुक्तम् ; सम्यात्वस्य तदक्षत्वात् । आत्मलाभस्तु क्रमवानिति मतिपूर्वकत्वव्याघाताभावः।
$ 209. आह, मतिपूर्व श्रुतमित्येतल्लक्षणमव्यापि श्रुतपूर्वमपि श्रुतमिष्यते । तद्यथाशब्दपरिणतपुद्गलस्कन्धादाहितवर्णपदवा क्यादिभावाच्चक्षुरादिविषयाच्च आद्यश्रुतविषयभावमापन्नादव्यभिचारिणः कृतसंगीतिर्जनो घटाज्जलधारणादि कार्य संबन्ध्यन्तरं प्रतिपद्यते, धूमादेर्वाग्न्यादिद्रव्यं, तदा श्रुतात् श्रुतप्रतिपत्तिरिति ? नैष दोषः। तस्यापि मतिपूर्वकत्वमुपचारतः।
8 207. शंका-श्रुतज्ञानको अनादिनिधन कहा है। ऐसी अवस्थामें उसे मतिज्ञानपूर्वक मान लेने पर उसको अनादिनिधनता नहीं बनतो, क्योंकि जिसका आदि होता है उसका अन्त अवश्य होता है। और इसलिए वह पुरुषका कार्य होनेसे उसे प्रमाण नहीं माना जा सकता। समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि द्रव्य आदि सामान्य नयको मुख्यतासे श्रृतको अनादिनिधन कहा है । किसी पुरुषने कहीं और कभी किसी भी प्रकारसे उसे किया नहीं है । हाँ उन्हीं द्रव्य आदि विशेष नयकी अपेक्षा उसका आदि और अन्त सम्भव है इसलिए 'वह मतिपूर्वक होता है' ऐसा कहा जाता है। जैसे कि अंकुर बोजपूर्वक होता है, फिर भी वह सन्तानकी अपेक्षा अनादि निधन है । दूसरे, जो यह कहा है कि पुरुषका कार्य होनेसे वह अप्रमाण है सो अपौरुषेयता प्रमाणताका कारण नहीं है। यदि अपौरुषेयताको प्रमाणताका कारण माना जाय तो जिसके कर्ताका स्मरण नहीं होता ऐसे चोरो आदिके उपदेश भो प्रमाण हो जाएँगे। तीसरे, प्रत्यक्ष आदि ज्ञान अनित्य होकर भो यदि प्रमाण माने जाते हैं तो इसमें क्या विरोध है, अर्थात कुछ भी नहीं।
8208. शंका-प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके साथ हो ज्ञानको उत्पत्ति होतो है, अतः श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है यह कथन नहीं बनता? समाधान-यह कहना ठीक नहीं है, क्योकि ज्ञानमें समोचोनता सम्यग्दर्शनके निमित्तसे प्राप्त होती है। इन दोनोंका आत्मलाभ तो क्रमसे ही होता है, इसलिए 'श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है' इस कथनका व्याघात नहीं होता।
209. शंका-'मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है' इस लक्षणमें अव्याप्ति दोष आता है क्योंकि श्रुतज्ञानपूर्वक भी श्रुतज्ञान होता है ऐसा कहा जाता है । यथा-किसी एक जीवने वर्ण, पद और वाक्य आदिरूपसे शब्द परिणत पुद्गल स्कन्धोंको कर्ण इन्द्रिय-द्वारा ग्रहण किया। अनन्तर उससे घटपदार्थविषयक प्रथम श्रुतज्ञान हुआ । यदि उसने घटके कायाका सकत कर रखा है तो उसे उस घटज्ञानके बाद जलधारणादि दूसरे कार्यों का ज्ञान होता है और तब श्रुतज्ञानसे श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। या किसो एक जोवने चक्ष आदि इन्द्रियों के विषयको ग्रहण किया। 1. -षकृतत्वा-मु.। 2. 'णाणाण्णाणाणि य समकालाई जओ मइसूयाई। तो न सुयं मइपव्वं मदणाणे वा सुयन्नाणं'-वि- भा. गा. 107 । 3. 'इहलद्धि मइसुयाई समकालाई न तूवओगो सि । मइपुवं सुयमिह पुण सूओपओगो मइप्पभवो। -वि. भा. गा. 108। 4. पदव्याख्यादि-आ., दि. 1। 5. संगति--मु. । 6. सम्बन्धान्तरं-ता., ना.।
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