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सर्वार्थसिद्धौ
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8 202. चक्षुश अनिन्द्रियेण च व्यञ्जनावग्रहो न भवति । कुतः ? अप्राप्यकारित्वात् । तोऽप्राप्तमर्थमविदिकं युक्तं संनिकर्षविषयेऽवस्थितं बाह्यप्रकाशाशिम यवतमुपलभते चक्षुः मनश्चाप्राप्तमित्यनयोर्व्य' अञ्जनावग्रहो' नास्ति ।
8 203. चक्षुषोप्राप्यकारित्वं 'कथमध्यवसीयते ? आगमतो युक्तितश्च । आपसातु "पुट्ठे सुणेदि सद्द अपुट्ठे चेव पस्सदे रूअं । गंध रसं च फास. बद्ध पुट्ठे वियाणादि ॥ "
$ 204. युक्तितश्च - अप्राप्यकारि चक्षुः स्पृष्टानवग्रहात् । यदि प्राप्यकारि स्यात् - न्द्रियवत् स्पृष्टमञ्जनं गृह्णीयात् नतु गृह, जात्यतो 'मनोवदप्राप्यकारीत्य वसेयम् । ततदचक्षु र्मनसी वर्जयित्वा शेषाणामिन्द्रियाणां व्यञ्जनावग्रहः । सर्वेषामिन्द्रियानिन्द्रियाणामर्थावग्रह इति सिद्धम् ।
8202. चक्षु और मनसे व्यंजनावग्रह नहीं होता है । शंका- क्यों ? समाधान—क्योंकि चक्षु और मन अप्राप्यकारी हैं। चूँकि नेत्र अप्राप्त, योग्य दिशामें अवस्थित युक्त, सन्निकर्ष के योग्य देश में अवस्थित और बाह्य प्रकाश आदिसे व्यक्त हुए पदार्थको ग्रहण करता है और मन भी प्राप्त अर्थको ग्रहण करता है अतः इन दोनोंके द्वारा व्यंजनावग्रह नहीं होता ।
$ 203. शंका- चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है यह कैसे जाना जाता है ? समाधानआगम और युक्तिसे जाना जाता है । आगमसे यथा - "श्रोत्र स्पष्ट शब्दको सुनता है, नेत्र अस्पृष्ट रूपको ही देखता है । तथा घ्राण, रसना और स्पर्शत इन्द्रियाँ कमसे स्पृष्ट गन्ध, रस और स्पर्शको हो जानती हैं । "
$ 204. युक्ति से यथा-चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है, क्योंकि वह रपृष्ट पदार्थको नहीं ग्रहण करती। यदि चक्ष इन्द्रिय प्राप्यकारो होतो तो वह त्वचा इन्द्रियके समान स्पृष्ट हुए अंजनको ग्रहण करती । किन्तु वह स्पृष्ट अंजनको नहीं ग्रहण करती है इससे मालूम होता है कि मनके समान चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है । अतः सिद्ध हुआ कि चक्षु और मनको छोड़कर शेष इन्द्रियोंके व्यजनावग्रह होता है । तथा सब इन्द्रिय और मनके अर्थाविग्रह होता है।
विशेषार्थ – पहले अवग्रहके दो भेद बतला आये हैं— अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह। इनमें से अर्थावग्रह तो पाँचों इन्द्रियों और मन इन छहों से होता है, किन्तु व्यंजनावग्रह चक्षु और मन इन दोसे नहीं होता यह इस सूत्र का भाव है । चक्षु और मनसे व्यंजनावग्रह क्यों नहीं होता, इसका निर्देश करते हुए जो टीकाम लिखा है उसका भाव यह है कि ये दोनों अप्राप्यकारी हैं अर्थात् ये दोनों विषयको स्पृष्ट करके नहीं जानते हैं, इसलिए इन द्वारा व्यंजनावग्रह नहीं होता । इससे यह अपने आप फलित हो जाता है कि व्यंजनावग्रह प्राप्त अर्थका ही होता है और अर्थावग्रह प्राप्त तथा अप्राप्त दोनों प्रकारके पदार्थों का होता है । यहाँ यह कहा जा सकता है कि यदि अप्राप्त अर्थका अर्थावग्रह होता है तो होवे इसमें बाधा नहीं, पर प्राप्त अर्थका अर्थावग्रह कैसे हो सकता है ? सो इस शंकाका यह समाधान है कि प्राप्त अर्थका सर्व प्रथम ग्रहण के समय तो व्यंजनावग्रह ही होता है, किन्तु बादमें उसका भो अर्थावग्रह हो जाता है। नेत्र प्राप्त अर्थको
1. अप्राप्तिका - आ., दि. 1, दि. 21 2 युक्तस - मु., ता., ना. 3. दिशेषेऽन- मु ता. ना. । 4. प्राप्तमतो नानयोर्व्य - मु., ता., ना., । 5. ग्रहोऽस्ति- मु. 16. कथमप्यवसी- मु. 17 तावत् पुट्ठे सुणोदि सद्दं अपु पुणे परसदे रूवं । फासं रसं च गंधं बद्धं पुट्ठं विद्यागादि ॥ युक्ति-मु । आ. नि. गा. 5 । 8. "जड़ पत्त गण्हेज उतग्गयमंजण - 1" वि. भा. गा. 212 9 'लोयणमपत्तविसयं मणोव्व । - वि. भागा. 209
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