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-1120 $ 206] प्रथमोऽध्यायः
[85 $ 205. आह निर्दिष्टं मतिज्ञानं लक्षणतो विक पतश्च; तदनन्तरमुद्दिष्टं यत् श्रुतं तस्येदानों लक्षणं विकल्पश्च वक्तव्य इत्यत आह
श्रुतं मतिपूर्व द्वयनेकद्वादशभेदम् ॥20॥ 8 206. श्रुतशब्दोऽयं श्रवणमुपादाय व्युत्पादितोऽपि रूढिवशात् कस्मिश्चिज्ज्ञानविशेष बर्तते । यथा कुशलवनकर्म प्रतीत्य व्युत्पादितोऽपि कुशलशब्दो रूढिवशात्पर्यवदाते. वर्तते। कः पुनरसो ज्ञानविशेष इति ? अत आह 'श्रुतं मतिपूर्वम्' इति । श्रुतस्य प्रमाणत्वं पूरयतीति पूर्व निमित्तं कारणमित्यनन्तरम् । मतिनिर्दिष्टा । मतिः पूर्वमस्य मतिपूर्वं मतिकारणमित्यर्थः । यदि मतिपूर्व श्रुतं तदपि मत्यात्मकं प्राप्नोति 'कारणसदृशं हि लोके कार्य दृष्टम्' इति । नतदैकान्तिकम् । दण्डादिकारणोऽयं घटो न दण्डाद्यात्मकः । अपि च सति तस्मिस्तदभावात् । सत्यपि मतिज्ञाने बाह्यश्रुतज्ञाननिमित्तसंनिधानेऽपि प्रबलश्रुतावरणोदयस्य श्रुताभावः। श्रुतावरणक्षयोपशमप्रकर्षे तु सति श्रुतज्ञानमुत्पद्यत इति मतिज्ञानं निमित्तमात्रं ज्ञेयम् । क्यों नहीं जानता इसका निर्देश टीकामें किया ही है। किन्तु धवलाके अभिप्रायानुसार शेष इन्द्रियाँ भी कदाचित अप्राप्यकारी हैं यह भी सिद्ध होता है। प्रायः पृथिवीमें जिस ओर निधि रखी रहती है उस ओर वनस्पतिके मूलका विकास देखा जाता है। यह तभी बन सकता है जब स्पर्शन इन्द्रिय-द्वारा अप्राप्त अर्थका ग्रहण बन जाता है । इसी प्रकार रसना, घ्राण और श्रोत्र इन्द्रिय-द्वारा भी उसकी सिद्धि हो जाती है। शेष कथन सुगम है।
8205. लक्षण और भेदोंकी अपेक्षा मतिज्ञानका कथन किया। अव उसके बाद क्रमप्राप्त श्रुतज्ञानके लक्षण और भेद कहने चाहिए; इसलिए आगेका सूत्र कहते हैं
श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है । वह दो प्रकारका; अनेक प्रकारका और बारह प्रकारका है ॥20॥
8 206 यह 'श्रुत' शब्द सुननेरूप अर्थको मुख्यतासे निष्पादित है तो भी रूढ़िसे भी उसका वाच्य कोई ज्ञानविशेष है । जैसे 'कुशल' शब्दका व्युत्पत्ति अर्थ कुशाका छेदना है तो भी रूढिसे उसका अर्थ पर्यवदात अर्थात् विमल या मनोज्ञ लिया जाता है । वह ज्ञानविशेष क्या है इस बात को ध्यानमें रखकर 'श्रुतं मतिपूर्वम्' यह कहा है । जो श्रुतकी प्रमाणताको पूरता है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार पूर्व, निमित्त और कारण ये एकार्थवाची हैं । मतिका व्याख्यान पहले कर आये हैं। वह मति जिसका पूर्व अर्थात् निमित्त है वह मतिपूर्व कहलाता है जिसका अर्थ मतिकारणक होता है। तात्पर्य यह है कि जो मतिज्ञानके निमित्तसे होता है उसे श्रतज्ञान कहते हैं। शंकायदि श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है तो श्रुतज्ञान भी मत्यात्मक ही प्राप्त होता है; क्योंकि लोक में कारणके समान ही कार्य देखा जाता है ? समाधान-यह कोई एकान्त नियम नहीं है कि कारणके समान कार्य होता है । यद्यपि घटको उत्पत्ति दण्डादिकसे होती है तो भी वह दण्डाद्यात्मक नहीं होता। दूसरे, मतिज्ञानके रहते हुए भी श्रुतज्ञान नहीं होता। यद्यपि मतिज्ञान रहा आता है और श्रुतज्ञानके बाह्य निमित्त भी रहे आते हैं तो भी जिसके श्रुतज्ञानावरणका प्रबल उदय पाया जाता है उसके श्रुतज्ञान नहीं होता। किन्तु श्रुतज्ञानावरण कर्मका प्रकर्ष क्षयोपशम होनेपर ही श्रुतज्ञान होता है इसलिए मतिज्ञान श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिमें निमित्तमात्र जानना चाहिए। 1. प्रतीत्या व्यु-मु.। 2. 'अवदातं तु विमले मनोज्ञा'-अ. ना. 4, 96। 3. "पुव्वं पूरणगालणभावओ जं मई।' वि. भा. गा. 1051
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