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सर्वार्थसिद्धी
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$ 233. अथ यथोक्तानि मत्यादीनि ज्ञानव्यपदेशमेव लभन्ते उतान्यथापीत्यत आह--- मति तावधयो विपर्ययश्च ॥31॥
$ 234. विपर्ययो मिथ्येत्यर्थः । कुतः ? सम्यगधिकारात् । 'च'शब्दः समुच्चयार्थः । विपर्ययश्च सम्यदचेति । कुतः पुनरेषां विपर्ययः ? मिथ्यादर्शनेन सहैकार्थसमवायात् सरजस्ककटुकालाबुगतदुग्धवत् । ननु च तत्राधारदोषाद् दुग्धस्य रसविपर्ययो भवति । न च तथा मत्यज्ञानादीनां विषयग्रहणे विपर्ययः । तथा हि सम्यग्दृष्टिर्यथा चक्षुरादिभी रूपादीनुपलभते तथा मिथ्यादृष्टिरपि मत्यज्ञानेन । यथा च सम्यग्दृष्टिः श्रुतेन रूपादीन् जानाति निरूपयति च तथा मिथ्यादृष्टिरपि श्रुताज्ञानेन । यथा चावधिज्ञानेन सम्यग्दृष्टिः रूपिणोऽर्थानवगच्छति तथा मिथ्यादृष्टिविभङ्गज्ञानेनेति ।
$ 235. अत्रोच्यते
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सदसतोरविशेषाद्यद्द च्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ॥32॥
8236. सद्विद्य मानमसदविद्यमानमित्यर्थः । तयोरविशेषेण यदृच्छया उपलब्धेविपर्ययो भाव माना जाता है । यही कारण है कि प्रकृत सूत्रमें एक साथ एक आत्माके एक, दो, तीन या चार ज्ञान हो सकते हैं यह कहा है ।
8233. अब यथोक्त मत्यादिक ज्ञान व्यपदेशको ही प्राप्त होते हैं या अन्यथा भी होते हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र है
मति श्रुत और अवधि ये तीन विपर्यय भी हैं ॥31॥
$ 234. विपर्ययका अर्थ मिथ्या है, क्योंकि सम्यग्दर्शनका अधिकार है । 'च' शब्द समुच्चयरूप अर्थ में आया । इससे यह अर्थ होता है कि मति, श्रुत, और अवधि विपर्यय भी हैं और समीचीन भी । शंका- ये विपर्यय किस कारणसे होते हैं ? समाधान क्योंकि मिथ्यादर्शनके साथ एक आत्मामें इनका समवाय पाया जाता है। जिस प्रकार रज सहित कड़वी तूंबड़ीमें रखा हुआ दूध कड़वा हो जाता है उसी सकार मिथ्यादर्शनके निमित्त ये विपर्यय होते हैं। कड़वी तंबड़ीमें आधारके दोपसे दूधका रस मीठेसे कड़वा हो जाता है- यह स्पष्ट है, किन्तु उस प्रकार मत्यादि ज्ञानोंकी विषयके ग्रहण करने में विपरीतता नहीं मालूम होती । खुलासा इस प्रकार है - जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि चक्षु आदिके द्वारा रूपादिक पदार्थोंको ग्रहण करता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि भी मत्यज्ञानके द्वारा रूपादिक पदार्थोंको ग्रहण करता है। जिस प्रकार सम्यग्दृष्टिश्रुतके द्वारा रूपादिक पदार्थोंको जानता है और उनका निरूपण करता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि भी श्रुतज्ञानके द्वारा रूपादिक पदार्थोंको जानता है और उनका निरूपण करता है । जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि अवधिज्ञानके द्वारा रूपी पदार्थों को जानता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि भी विभंग ज्ञानके द्वारा रूपी पदार्थोंको जानता है ।
8235. यह एक प्रश्न है जिसका समाधान करनेके लिए अगला सूत्र कहते हैं । वास्तविक और अवास्तविकके अन्तर के बिना यदृच्छोपलब्धि ( जब जैसा जी में आया उस रूप ग्रहण होने) के कारण उन्मत्तकी तरह ज्ञान भी अज्ञान हो जाता है ॥32॥
$ 236. प्रकृत में 'सत्' का अर्थ विद्यमान और 'असत्' का अर्थ अविद्यमान है। इनकी 1. विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम् । पा. यो. सू. 1, 8 1 2 - रपि । यथा - दि. 1, दि. 2, आ. 3. ‘सदसदविसेसणाओ भयहेउज दिच्छिओवलम्भाओ । नाणफलाभावाओ मिच्छद्दिट्ठस्स अण्णाणं । ' - वि.
भा. गा. 115 ।
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