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-213 § 258]
द्वितीयोऽध्यायः
[109 वेदितव्या । द्वौ च नव च अष्टादश च एकविंशतिश्च त्रयश्च द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रयः । ते च ते भेदाश्च त एव भेदा येषामिति वा वृतिद्विनवाष्टादशैकविशतित्रिभेदा इति । यदा स्वपदार्थे वृत्तिस्तदा औपमकादीनां भावानां द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रयो भेदा इत्यभिसंबन्धः क्रियते; अर्थवशाद्विभक्तिपरिणाम इति । यदान्यपदार्थे वृत्तिस्तदा निर्दिष्टविभक्त्यन्ता एवाभिसंबध्यन्ते, औपशमिकादयो भावा द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा इति । 'यथाक्रम'वचनं यथासंख्यप्रतिपत्त्यर्थम् । औपशमिको द्विभेदः । क्षायिको नवभेदः । मिश्रोऽष्टादशभेद: । औदयिक एकविंशतिभेदः । पारिणामिकस्त्रिभेद इति ।
8256. यद्येवमौपशमिकस्य कौ द्वौ भेदावित्यत आह
सम्यक्त्वचारित्रे ॥3॥
257. व्याख्यातलक्षणे सम्यक्त्वचारित्रे । औपशमिकत्वं कथमिति चेत् ? उच्यतेचारित्रमोहो द्विविधः कषायवेदनीयो नोकत्रायवेदनीयश्चेति । तत्र कषायवेदनीयस्य भेदा अनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमायालोभाद चत्वारः । दर्शनमोहस्य त्रयो भेदाः सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं सम्यग्मिय्यात्वमिति । आसां सप्तानां प्रकृतीनामुपशमादौपशमिकं सम्यक्त्वम् ।
$ 258. अनादिमिथ्यादृष्टेर्भव्यस्य कर्मोदयापादितकालुष्ये सति कुतस्तदुपशमः ? काललब्ध्यादिनिमित्तत्वात् । तत्र काललब्धिस्तावत् - कर्माविष्ट आत्मा भव्यः कालेऽर्द्धपुद्गलपरिवर्तनायेऽवशिष्टे प्रथमसम्यक्त्वग्रहणस्य योग्यो भवति नाधिके इति । इयमेका काललब्धिः । अपरा साथ स्वपदार्थ में या अन्यपदार्थ में समास जानना चाहिए। स्वपदार्थ प्रधान समास यथा - द्वौ च नव च अष्टादश च एकविंशतिश्च त्रयश्च इति द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रयः, ते एव भेदा: इति द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदाः । अन्यपदार्थप्रधान समास यथा— द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रयो भेदा येषां ते द्विनवाष्टादशै कविंशतित्रिभेदाः । जब स्वपदार्थ में समास करते हैं तब औपशमिक आदि भावोंके दो, नौ, अठारह, इक्कीस और तीन भेद हैं ऐसा सम्बन्ध कर लेते हैं । यद्यपि पूर्व सूत्र में औपशमिक आदि पदको षष्ठी विभक्ति नहीं है तो भी अर्थवश विभक्ति बदल जाती है । और जब अन्य पदार्थों में समास करते हैं तब विभक्ति बदलने का कोई कारण नहीं रहता । सूत्रमें इनकी विभक्तिका जिस प्रकार निर्देश किया है तदनुसार सम्बन्ध हो जाता है । सूत्रमें 'यथाक्रम' वचन यथासंख्याके ज्ञान कराने के लिए दिया है। यथा - औपशमिक भावके दो भेद हैं, क्षायिकके नौ भेद हैं, मिश्रके अठारह भेद हैं, औदयिकके इक्कीस भेद हैं और पारिणामिकके तीन भेद हैं । 256. यदि ऐसा है तो औपशमिकके दो भेद कौन-से हैं ? इस बातका ज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
औपशभिक भावके दो भेद हैं-औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र ॥ 3 ॥
$ 257. सम्यक्त्व और चारित्रके लक्षणका व्याख्यान पहले कर आये हैं । शंका- इनके औपशमिकपना किस कारण से है ? समाधान — चारित्रमोहनीयके दो भेद हैं- कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीय । इनमें से कषायवेदनीयके अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार भेद और दर्शनमोहनीयके सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये तीन भेद - इन सातके उपशमसे औपशमिक सम्यक्त्व होता है ।
8258. शंका-अनादि मिथ्यादृष्टि भव्यके कर्मोंके उदयसे प्राप्त कलुषताके रहते हुए इनका उपशम कैसे होता है ? समाधान काल्लब्धि आदिके निमित्तसे इनका उपशम होता है । अब यहाँ काललब्धिको बतलाते हैं - कर्मयुक्त कोई भी भव्य आत्मा अर्धपुद्गल परिवर्तन नाम1. दीनां द्विमु.
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