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-1133 § 248]
प्रथमोऽध्यायः
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मन्यते ; अन्यार्थस्यान्यार्थेन संबन्धाभावात् । लोकसमयविरोध इति चेत् ? विरुध्यताम् । तत्त्वमिह मीमांस्यते, न भैषज्यमातुरेच्छानुर्वात ।
$ 247. नानार्थशमभिरोहणात्समभिरूढः । यतो नानार्थान्समतीत्येकमर्थमाभिमुख्येन रूढः समभिरूढः । गौरित्ययं शब्दो वागादिष्वर्थेषु वर्तमानः पशावभिरूढः । अथवा 'अर्थगत्यर्थः शब्दप्रयोगः । तत्रैकस्यार्थस्यैकेन गतार्थत्वात्पर्यायशब्दप्रयोगोऽनर्थकः । शब्दभेदश्चेदस्ति अर्थभेदे - नाप्यवश्यं भवितव्यमिति । नानार्थसमभिरोहणात्समभिरूढः । इन्दनादिन्द्रः शकनाच्छक्रः पूर्दारणात् पुरदर इत्येवं सर्वत्र । अथवा यो यत्राभिरूढः स तत्र समेत्याभिमुख्ये नारोहणात्समभिरूढः । यथा क्व भवानास्ते ? आत्मनीति । कुतः ? वस्त्वन्तरे वृत्त्यभावात् । " यद्यन्यस्यान्यत्र वृत्तिः स्यात्, ज्ञानादीनां रूपादीनां चाकाशे वृत्तिः स्यात् ।
$ 248. येनात्मना भूतस्तेनैवाध्यवसाययतीति एवंभूतः । स्वाभिप्रेतक्रियापरिणतिक्षणे एव स शब्दो युक्तो नान्यदेति । यदैवेन्दति तदेवेन्द्रो नाभिषेचको न पूजक इति । यदेव गच्छति तदैव यथा - 'संतिष्ठते, प्रतिष्ठते, विरमति, उपरमति ।' यहाँ 'सम्' और 'प्र' उपसर्गके कारण 'स्था' धातुका आत्मनेपद प्रयोग तथा 'वि' और 'उप' उपसर्गके कारण रम्' धातुका परस्मैपदमें प्रयोग किया गया है, इसलिए यह उपग्रहव्यभिचार है । यद्यपि व्यवहार में ऐसे प्रयोग होते हैं तथापि इस प्रकारके व्यवहारको शब्दनय अनुचित मानता है, क्योंकि पर्यायार्थिक नयकी दृष्टिसे अन्य अर्थका अन्य अर्थ के साथ सम्बन्ध नहीं बन सकता । शंका- इससे लोकसमयका ( व्याकरण शास्त्रका ) विरोध होता है । समाधान - यदि विरोध होता है तो होने दो, इससे हानि नहीं, क्योंकि यहाँ तत्त्वकी मीमांसा की जा रही है। दवाई कुछ पीड़ित पुरुषकी इच्छाका अनुकरण करनेवाली नहीं होती।
247. नाना अर्थों का समभिरोहण करनेवाला होनेसे समभिरूढ़ नय कहलाता है। चूंकि जो नाना अर्थोको 'सम्' अर्थात् छोड़कर प्रधानतासे एक अर्थ में रूढ़ होता है वह समभिरूढ़ नय है । उदाहरणार्थ – 'गो' इस शब्दके वचन आदि अनेक अर्थ पाये जाते हैं तो भी वह 'पशु' इस अर्थ में रूढ़ है । अथवा अर्थका ज्ञान करानेके लिए शब्दोंका प्रयोग किया जाता है। ऐसी हालत में एक अर्थका एक शब्दसे ज्ञान हो जाता है, इसलिए पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करना निष्फल है । यदि शब्दों में भेद है तो अर्थभेद अवश्य होना चाहिए। इस प्रकार नाना अर्थों का समभिरोहण करनेवाला होनेसे समभिरूढ़ नय कहलाता है। जैसे इन्द्र, शक्र और पुरन्दर ये तीन शब्द होने से इनके अर्थ भी तीन हैं । इन्द्रका अर्थ आज्ञा ऐश्वर्यवान् है, शक्रका अर्थ समर्थ है और पुरन्दरका अर्थ नगरका दारण करनेवाला है। इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिए। अथवा जो जहाँ अभिरूढ़ है वह वहाँ 'सम्' अर्थात् प्राप्त होकर प्रमुखता से रूढ़ होनेके कारण समभिरूढ़ नय कहलाता है । यथा - आप कहाँ रहते हैं ? अपने में, क्योंकि अन्य वस्तुकी अन्य वस्तुमें वृत्ति नहीं हो सकती । यदि अन्यकी अन्य में वृत्ति होती है ऐसा माना जाय तो ज्ञानादिककी और रूपादिककी आकाश में वृत्ति होने लगे ।
8248. जो वस्तु जिस पर्यायको प्राप्त हुई है उसीरूप निश्चय करानेवाले नयको एवंभूत नय कहते हैं । आशय यह है कि जिस शब्दका जो वाच्य है उसरूप क्रिया के परिणमनके समय ही 1. तत्त्वं मीमां- आ., दि. 1, दि. 21 2. न तु भैष-- आ., दि. 1 । 3. गादिषु वर्तता, ना. । 4. 'अर्थगत्यर्थः शब्दप्रयोगः । अर्थ संप्रत्याययिष्यामीति शब्दः प्रयुज्यते । तत्रैकेनोक्तत्वात्तस्यार्थस्य द्वितीयस्य च तृतीयस्य च प्रयोगेण न भवितव्यम् 'उक्तार्थानामप्रयोगः' इति – पा. म. भा. 2।1।1।1।
5. यद्यस्यान्यत्र आ. ।
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