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100] सर्वार्थसिद्धौ
[1132 6 239मिथ्यादर्शनोदयात्कल्पयन्ति तत्र च श्रद्धानमुत्पादयन्ति । ततस्तन्मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभङ्गज्ञानं च भवति । सम्यग्दर्शनं पुनस्तत्त्वार्थाधिगमे श्रद्धानमुत्पादयति । ततस्तन्मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं च भवति।
8 240. आह प्रमाणं द्विप्रकारं वर्णितम् । प्रमाणैकदेशाश्च नयास्तदनन्तरोद्देशभाजी निर्देष्टव्या इत्यत आह
नंगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूदैवंभूता नयाः ॥33॥
8241. एतेषां सामान्यविशेषलक्षणं वक्तव्यम् । सामान्यलक्षणं तावद्वस्तुन्यनेकान्तात्मन्यविरोधेन हेत्वर्पणात्साध्यविशेषस्य याथात्म्यप्रापणप्रवणः प्रयोगो नयः। स द्वधा द्रव्याथिकः पर्यायाथिकश्चेति । द्रव्यं सामान्यमुत्सर्गः अनुवृत्तिरित्यर्थः। तद्विषयो द्रव्यार्थिकः । पर्यायो विशेषोऽपवादो व्यावृत्तिरित्यर्थः । तद्विषयः पर्यायाथिकः । तयोर्भेदा नैगमादयः।
$ 242. तेषां विशेषलक्षणमुच्यते-अनभिनिर्वृत्तार्यसंकल्पमात्रग्राही नगमः । कंचित्पुरुषं नहीं है। इसी प्रकार मिथ्यादर्शनके उदयसे ये जीव प्रत्यक्ष और अनुमानके विरुद्ध नाना प्रकारकी कल्पनाएँ करते हैं और उनमें श्रद्धान उत्पन्न करते हैं । इसलिए इनका यह ज्ञान मत्यज्ञान.श्रताज्ञान या विभंगज्ञान होता है। किन्तु सम्यग्दर्शन तत्त्वार्थ के ज्ञान में श्रद्धान उत्पन्न करता है अतः इस प्रकारका ज्ञान मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान होता है।
विशेषार्थ-यहाँपर प्रारम्भके तीन ज्ञान विपर्यय होते हैं यह बतलाकर वे विपर्यय क्यों होते हैं यह बतलाया गया है। संसारी जीवकी श्रद्धा विपरीत और समीचीनके भेदसे दो प्रकारकी होती है । विपरीत श्रद्धावाले जीवको विश्वका यथार्थ ज्ञान नहीं होता। वह जगत्में कितने पदार्थ हैं उनका स्वरूप क्या है यह नहीं जानता। आत्मा और परमात्माके स्वरूप बोधसे तो वह सर्वथा वंचित ही रहता है । वह घटको घट और पटको पट ही कहता है, पर जिन तत्त्वोंसे इनका निर्माण होता है उनका इसे यथार्थ बोध नहीं होने पाता । यही कारण है कि जीवकी श्रद्धाके अनुसार ज्ञान भी समीचीन ज्ञान और मिथ्या ज्ञान इन दो भागोंमें विभक्त हो जाता है। यथार्थ श्रद्धाके होनेपर जो ज्ञान होते हैं उन्हें समीचीन ज्ञान कहते हैं और यथार्थ श्रद्धाके अभावमें होनेवाले ज्ञानोंका नाम ही मिथ्याज्ञान है। ऐसे मिथ्याज्ञान तीन माने गये हैं-कूमति ज्ञान, कुश्रत ज्ञान और विभंग ज्ञान । ये ही तीन ज्ञान मिथ्या होते हैं, अन्य नहीं, क्योंकि ये ज्ञान विपरीत श्रद्धावालेके भी पाये जाते हैं। विपरीत श्रद्धा होती है इसका निर्देश मूल टीकामें किया ही है।
8 240. दो प्रकारके प्रमाणका वर्णन किया। प्रमाणके एकदेशको नय कहते हैं । इनका कथन प्रमाणके अनन्तर करना चाहिए, अतः आगेका सूत्र कहते हैं
नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत ये सात नय हैं ॥33॥
8241. इनका सामान्य और विशेष लक्षण कहना चाहिए। सामान्य लक्षण-अनेकान्तात्मक वस्तुमें विरोधके बिना हेतुकी मुख्यतासे साध्यविशेषकी यथार्थताके प्राप्त करानेमें समर्थ प्रयोगको नय कहते हैं। इसके दो भेद हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक । द्रव्यका अर्थ सामान्य, उत्सर्ग और अनुवृत्ति है और इसको विषय करनेवाला नय द्रव्याथिक नय कहलाता है। तथा पर्यायका अर्थ विशेष, अपवाद और व्यावृत्ति है और इसको विषय करनेवाला नय पर्यायार्थिक नय कहलाता है । इन दोनों नयोंके उत्तर भेद नैगमादिक हैं।
8 242. अब इनका विशेष लक्षण कहते हैं - अनिष्पन्न अर्थमें संकल्पमात्रको ग्रहण करनेवाला नय नैगम है । यथा-हाथमें फरसा लेकर जाते हुए किसी पुरुषको देखकर कोई अन्य पुरुष 1.-ज्ञानमवध्यज्ञा-मु.। 2. -वणप्रयो-मु.।
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