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सर्वार्थसिद्धी
विशुद्धिक्षेत्रस्वामि विषयेभ्योऽवधिमनःपर्यययोः ॥25॥
8 222. विशुद्धिः प्रसादः । क्षेत्रं यत्रस्थान्भावान्प्रतिपद्यते । स्वामी प्रयोक्ता । विषयो शेयः । तत्रावधेर्मनः पर्ययो विशुद्धतरः । कुतः ? सूक्ष्मविषयत्वात् । क्षेत्रमुक्तम्' । विषयो वक्ष्यते । स्वामित्वं प्रत्युत्यते । प्रकृष्टचारित्रगुणोपेतेषु वर्तते प्रमत्तादिषु क्षीणकषायान्तेषु । तत्र चोत्पद्यमानः प्रवर्द्धमानचारित्रेषु न हीयमानचारित्रेषु । प्रवर्द्धमानचारित्रेषु चोत्पद्यमानः सप्तविधान्यत'मद्धप्राप्तेषूपजायते नेतरेषु । ऋद्धिप्राप्तेषु केषुचिन्न सर्वेषु । ' इत्यस्यायं स्वामिविशेषो । विशिष्टसंयमग्रहणं वा वाक्ये प्रकृतम् । अवधिः पुनश्चातुर्गतिकेष्विति स्वामिभेदादप्यनयो विशेषः ।
8223. इदानीं केवलज्ञानलक्षणाभिधानं प्राप्तकालम् । तदुल्लङ्घ्य ज्ञानानां विषयनिबन्ध: परीक्ष्यते । कुतः ? तस्य 'मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्' इत्यत्र वक्ष्य- माणत्वात् । यद्येवमाद्ययोरेव तावन्मतिश्रुतयो विषयनिबन्ध उच्यतामित्यत आह
मतिश्रुतयोनिबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्ययेषु ॥ 26
1 8224 निबन्धनं निबन्धः । कस्य ? विषयस्य । तद्विषग्रहणं कर्तव्यम् ? न कर्तव्यम् । प्रकृतं विषयग्रहणम् । क्व प्रकृतम् ? 'विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्यः' ' इत्यत्र । अतस्तस्यार्थवशाद्विविशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषयको अपेक्षा अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानमें भेद है ||25||
8222. विशुद्धिका अर्थ निर्मलता है । जिस स्थान में स्थित भावोंको जानता है वह क्षेत्र है | स्वामीका अर्थ प्रयोक्ता है। विषय ज्ञेयको कहते हैं । सो इन दोनों ज्ञानोंमें अवधिज्ञानसे मन:पर्ययज्ञान विशुद्धतर है, क्योंकि मन:पर्ययज्ञानका विषय सूक्ष्म है। क्षेत्रका कथन पहले कर आये हैं । विषयका कथन आगे करेंगे । यहाँ स्वामीका विचार करते हैं--मन:पर्ययज्ञान प्रमत्तसंयतसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तकके उत्कृष्ट चारित्रगुणसे युक्त जीवोंके ही पाया जाता है । वहाँ उत्पन्न होता हुआ भी वह वर्द्धमान चारित्रवाले जीवोंके ही उत्पन्न होता है, घटते हुए चारित्रवाले जीवोंके नहीं । वर्धमान चारित्रवाले जीवोंमें उत्पन्न होता हुआ भी सात प्रकारकी ऋद्धियों में से किसी एक ऋद्धिको प्राप्त हुए जीवोंके ही उत्पन्न होता है, अन्यके नहीं । ऋद्धिप्राप्त जीवोंमें भी किन्हींके ही उत्पन्न होता है, सबके नहीं, इस प्रकार सूत्रमें इसका स्वामीविशेष या विशिष्ट सयमका ग्रहण प्रकृत है । परन्तु अवधिज्ञान चारों गतिके जीवोंके होता है, इसलिए स्वामियोंके भेदसे भी इनमें अन्तर है ।
विशेषार्थ ---- यों तो अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानमें मौलिक अन्तर है । अवधिज्ञान सीधे तौरसे पदार्थोंको जानता है और मन:पर्ययज्ञान मनकी पर्यायरूपसे । फिर भी यहाँ अन्य आधारोंसे इन दोनों ज्ञानोंमें अन्तर दिखलाया गया है । वे आधार चार हैं--द्रव्य, क्षेत्र, स्वामी और विषय । 8223. अब केवलज्ञानका लक्षण कहनेका अवसर है। किन्तु उसका कथन न कर पहले ज्ञानोंके विषयका विचार करते हैं, क्योंकि केवलज्ञानका लक्षण 'मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्' यहाँ कहेंगे । यदि ऐसा है तो सर्वप्रथम आदिमें आये हुए मतिज्ञान और श्रुतज्ञान विषयका कथन करना चाहिए । इसी बातको ध्यान में रखकर आगेका सूत्र कहते हैं
[1125 § 222
मतिज्ञान और श्रुतज्ञानकी प्रवृत्ति कुछ पर्यायोंसे युक्त सब द्रव्योंमें होती है ॥26॥
8224. निबन्ध शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है - निबन्धनं निबन्ध: ---जोड़ना, सम्बन्ध करना । शंका ---- किसका सम्बन्ध ? समाधान - विषयका । शंका- तो सूत्रमें विषय पदका ग्रहण 1. मुक्तं विशेषो व मु.। 2 - तेऽप्रन- मु., दि 1, 2 1 3. इत्यस्य स्वामिविशेषविशिष्ट संयमग्रहणं वाक्ये कृतम् । अव-मु. ता., ना. । 4. -येभ्य इत्यतस्त - दि. 1, दि. 2, आ., मु.
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