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सर्वार्थसिद्धी
[11168 197: 197. यद्यवग्रहादयो बह्वादीनां कर्मणामाक्षेप्तारः, बह्वादीनि पनविशेषणानि कस्येत्यत आह
___ अर्थस्य ॥17॥ 198 चक्षुरादिविषयोऽर्थः । तस्य बह्वादिविशेषणविशिष्टस्य अवग्रहादयो भवन्तीत्यभिसंबन्धः क्रियते। किमर्थमिदमुच्यते यावता बह्वादिरर्थ एव ? सत्यमेवं, किन्तु प्रवादिपरिकल्पनानिबृत्त्यर्थ 'अर्थस्य' इत्युच्यते। केचित्प्रवादिनो मन्यन्ते रूपादयो गुणा एव इन्द्रियः संनिकृष्यन्ते ते तेषामेव ग्रहणमिति । तदयुक्तम् ; न हि ते रूपादयो गुणा अमूर्ता इन्द्रियसंनिकर्षमापद्यन्ते । न तहि इदानीमिदं भवति 'रूपं मया दृष्टं, गन्धो वा घ्रात' इति । भवति च । कथम्? इति पर्यायांस्तैर्वाऽयंत इत्यर्थो द्रव्यं, तस्मिन्निन्द्रियैः संनिकृष्यमाणे तदव्यतिरेका पादिष्वपि संव्यवहारो युज्यते।
$ 199. किमिमे अवग्रहादयः सर्वस्येन्द्रियानिन्द्रियस्य भवन्ति उत कश्चिद्विषयविशेषोऽस्तीत्यत आह
व्यञ्जनस्यावग्रहः ॥18॥ . है और दूसरे पाठका उल्लेख अन्य कुछ आचार्योंके अभिप्रायके रूप में किया है । इन दोनों व्याख्यानों में जो अन्तर है वह इस प्रकार है-मूल पाठके अनुसार-अनिःसृतज्ञान- अवयवके ग्रहणके समय ही पूरे अवयवीका ज्ञान होना। निःसृत ज्ञान-- इससे उलटा। पाठान्तरके अनुसार-निःसृतज्ञान-विशेषताको लिये हुए ज्ञान होना। अनिःसृत ज्ञान--विशेषताके बिना साधारण ज्ञान होना । शेष कथन सुगम है।
197. यदि अवग्रह आदि बहु आदिकको जानते हैं तो बहु आदिक किसके विशेषण हैं अब इसी बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
अर्थक (वस्तुके) अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चारों मतिज्ञान होते हैं ॥17॥
8 198. चक्षु आदि इन्द्रियोंका विषय अर्थ कहलाता है। बहु आदि विशेषणोंसे युक्त उस (अर्थ) के अवग्रह आदि होते हैं ऐसा यहाँ सम्बन्ध करना चाहिए। शंका-- यतः बहु आदिक अर्थ ही हैं, अतः यह सूत्र किसलिए कहा ? समाधान- यह सत्य है कि बहु आदिक अर्थ ही हैं तो भी अन्य वादियोंकी कल्पनाका निराकरण करनेके लिए 'अर्थस्य' सत्र कहा है। कितने ही प्रवादी मानते हैं कि रूपादिक गुण ही इन्द्रियोंके साथ सम्बन्धको प्राप्त होते हैं, अतः उन्हींका ग्रहण होला है, किन्तु उनका ऐसा मानना ठीक नहीं है, क्योंकि वे रूपादिक गुण अमूर्त हैं, अतः उनका इन्द्रियोंके साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता। शंका-यदि ऐसा है तो 'मैंने रूप देखा, मैंने गन्ध सूंघा' यह व्यवहार नहीं हो सकता, किन्तु होता अवश्य है सो इसका क्या कारण है ? समाधान- जो पर्यायोंको प्राप्त होता है या पर्यायोंके द्वारा जो प्राप्त किया जाता है, यह 'अर्थ' है। इसके अनुसार अर्थ दव्य ठहरता है। उसके इन्द्रियोंके साथ सम्बन्ध को प्राप्त होने पर चूंकि रूपादिक उससे अभिन्न है, अतः रूपादिकमें भी ऐसा व्यवहार बन जाता है कि 'मैंने रूप देखा, मैंने गन्ध संघा।'
विशेषार्थ-ज्ञानका विषय न केवल सामान्य है और न विशेष, किन्तु उभयात्मक पदार्थ है। प्रकृतमें इसी बातका ज्ञान करानेके लिए 'अर्थस्य' सूत्रको रचना हुई है। इससे नैयायिक वैशेषिकोंके इस मतका खण्डन हो जाता है कि रूपादि गुण इन्द्रियोंके साथ सम्बन्धको प्राप्त होते हैं ।
199. क्या ये अवग्रह आदि सब इन्द्रिय और मन के होते हैं या इनमें विषयकी अपेक्षा कुछ भेद हैं ? अब इसी बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
व्यंजनका अवग्रह ही होता है ॥18॥ 1. 'न तहि इदानीमिदं भवति ।' वा. भा. 1, 1,4।
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