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सर्वार्थसिद्धी
[11168 1918191. उक्तानामवग्रहादीनां प्रभेदप्रतिपत्त्यर्थमाह -
बहुबहुविधक्षिप्रानिःसृतानुक्तध्रुवाणां सेतराणाम् ॥16॥ 8192. अवमहादयः क्रियाविशेषाः प्रकृताः। तदपेक्षोऽयं कर्मनिर्देशः । बह्वादीनां सेतराणामिति । बहुशब्दस्य संख्यावैपुल्यवाचिनो ग्रहणमविशेषात् । संख्यावाची' यथा, एको हो बहव इति । वैपुल्यवाची यथा, 'बहुरोदनो बहुः सूप इति । विधशब्दः प्रकारवाची । क्षिप्रग्रहणमचिरप्रतिपत्त्यर्थम् । अनिःसृतग्रहणं असकलपुद्गलोद्गमार्थम् । अनुक्तमभिप्रायेण ग्रहणम् । ध्रुवं निरन्तरं यथार्थग्रहणम् । सेतर ग्रहणं प्रतिपक्षसंग्रहार्थम् ।
193. बहूनामवग्रहः अल्पस्यावग्रहः बहुविधस्यावग्रहः एकविधस्यावग्रहः क्षिप्रमवग्रहः चिरेणावग्रहः अनिःसृतस्यावग्रहः निःसृतस्यावग्रहः अनुक्तस्यावग्रहः उक्तस्यावग्रहः ध्र वस्यावग्रहः अध वस्यावग्रहश्चेति अवग्रहो द्वादशविकल्पः। एवमोहादयोऽपित एते पञ्चभिरिन्द्रियदारर्मनसा च प्रत्येकं प्रादुर्भाव्यन्ते । तत्र बह्ववनहादयः मतिज्ञानावरणक्षयोपशमप्रकर्षात् प्रभवन्ति नेतरे इति । तेषामहितत्वादादौ ग्रहणं क्रियते। है कि यह ज्ञान किसी विषयको जानते समय उसीको जानता है। एक विषयके निमित्तसे इसका दूसरे विषय में प्रवेश नहीं होने पाता। टीकामें अवग्रह आदिके जो दृष्टान्त दिये हैं सो उनका वर्गीकरण इसी दृष्टिसे किया गया है।
$191. इस प्रकार अवग्रह आदिका कथन किया। अब इनके भेदोंके दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
सेतर (प्रतिपक्षसहित) बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त जोर ध्र वके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणारूप मतिज्ञान होते हैं ॥16॥
8192. अवग्रह आदि क्रियाविशेषोंका प्रकरण है उनकी अपेक्षा 'बह्वादीनां सेतराणां' इस प्रकार कर्मकारकका निर्देश किया है। 'बहु' शब्द संख्यावाची और वैपुल्यवाची दोनों प्रकारका है। इन दोनोंका यहाँ ग्रहण किया है, क्योंकि उनमें कोई विशेषता नहीं है। संख्यावाची बड़ शन्द यथा-एक, दो, बहुत । वैपुल्यवाची बहु शब्द यथा- बहुत भात, बहुत दाल । 'विध' शब्द प्रकारवाची है। सूत्र में क्षिप्र' शब्दका ग्रहण, जल्दी होनेवाले ज्ञानके जतानेके लिए किया है। जब पूरी वस्तु प्रकट न होकर कुछ प्रकट रहती है और कुछ अप्रकट तब वह अनिःसृत कही जाती है । यहाँ अनिःसृत अर्थ ईष निःसृत है, अतः इसका ग्रहण करनेके लिए सूत्रमें 'लनिःसृत' पद दिया है। जो कही या बिना कही वस्तु अभिप्राय से जानी जाती है उसके ग्रहण करनेके लिए 'अनुक्त' पद दिया है। जो यथार्थ ग्रहण निरन्तर होता है उसके जतानेके लिए 'ध्र व' पद दिया है। इनसे प्रतिपक्षभूत पदार्थोंका संग्रह करनेके लिए 'सेतर' पद दिया है।
६193. बहतका अवग्रह, अल्पका अवग्रह, बहुविधका अवग्रह, एकविधका अवग्रह, क्षिप्रावग्रह, अक्षिप्रावग्रह, अनिःसतका अवग्रह, निःसृतका अवयह, अनुक्तका अवग्रह, उक्तका अवग्रह, ध्र नका अवग्रह और अध्र वका अवग्रह ये अवग्रहके बारह भेद हैं। इसी प्रकार ईहादिकमेंसे प्रत्येकके बारह-बारह भेद हैं। ये सब अलग-अलग पाँच इन्द्रिय और मनके द्वारा उत्पन्न कराने चाहिए। इनमें से बहु अवग्रह आदि मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमके प्रकर्षसे होते हैं, इतर नहीं । बहु आदि श्रेष्ठ हैं, अतः उनका प्रथम ग्रहण किया है।
-1. “अत्स्येव संख्यावाची। तद्यथा एको द्वौ बहव इति ।'-पा. म. भा. 114121211 2. 'बहुरोदनो बहः सूप इति।'-पा. म. मा. 11412121। 3. ध्रुवं यथा-ता., न. ।
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