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सर्वार्थसिद्धौ
8181. प्रभिहितोभयत्रकारस्य प्रमाणस्य आविप्रकारविशेष प्रतिपत्यर्थमाह
मतिः स्मृति: संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् ॥13॥
8182 1 आदौ उद्दिष्टं यज्ज्ञानं तस्य पर्यायशब्दा एते वेदितव्याः; मतिज्ञानावरणक्षयोपशमान्तरं गनिमित्तजनितोपयोग विषयत्वादेतेषां श्रुतादिष्वप्रवृत्तेश्च । मननं मतिः, स्मरणं स्मृतिः, संज्ञानं संज्ञा, चिन्तनं चिन्ता, अभिनिबोधनमभिनिबोध इति । यथासंभवं विग्रहान्तरं विज्ञेयम् । 183. सत्यपि प्रकृतिभेदे रुढिबललाभात् पर्यायशब्दत्वम् । यथा इन्द्रः शक्रः पुरन्दर इति इन्दनादिक्रिया भेदेऽपि शचीपतेरेकस्यैव संज्ञा । समभिरूढनयापेक्षया तेषामर्थान्तरकल्पनायां मत्यादिष्वपिसक्रम विद्यत एव। किं तु मतिज्ञानावरणक्षयोपशमनिमितोपयोगं 'नातिवर्तन्त इति मत्रा विवक्षितः । 'इति' शब्द: ' प्रकारार्थ: : एवं प्रकाश अस्य पर्यायशब्दा इति । अभियार्थो वा । मति स्मृतिः संज्ञा चिन्ता अभिनिबोध इत्येतैर्योऽर्थोऽभिधीयते स एक एव इति ।
[1113 § 181
$ 181 प्रमाण प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद कहे। अब हम प्रथम प्रकारके प्रमाणके विशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और श्रभिनिबोध ये पर्यायवाची नाम हैं ।। 13u
8182. आदिमें जो ज्ञान कहा है उसके ये पर्यायवाची शब्द जानने चाहिए, क्योंकि ये मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमरूप अन्तरंग निमित्तसे उत्पन्न हुए उपयोगको विषय करते हैं और इनकी श्रुतादिक में प्रवृत्ति नहीं होती । 'मननं मतिः, स्मरण स्मृतिः, संज्ञानं संज्ञा, चिन्तनं चिन्ता और अभिनिबोधनमभिनिबोधः' यह इनकी व्युत्पत्ति है । यथा सम्भव इनका दूसरा विग्रह जानना चाहिए ।
8183. यद्यपि इन शब्दोंकी प्रकृति अलग-अलग है अर्थात् यद्यपि ये शब्द अलग-अलग धातुसे बने हैं तो भी रूढ़िसे पर्यायवाची हैं। जैसे इन्द्र, शक और पुरन्दर । इनमें यद्यपि इन्द आदि क्रियाकी अपेक्षा भेद है तो भी ये सब एक शचीपतिकी वाचक संज्ञाएँ हैं । अब यदि समभिरूढ नयकी अपेक्षा इन शब्दोंका अलग-अलग अर्थ लिया जाता है तो वह क्रम मति आदि शब्दों में भी पाया जाता है । किन्तु ये मति आदि मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमरूप निमित्तसे उत्पन्न हुए उपयोगको उल्लंघन नहीं करते हैं यह अर्थ यहाँपर विवक्षित है । प्रकृत में 'इति' शब्द प्रकारवाची है जिससे यह अर्थ होता है कि इस प्रकार ये मति आदि मतिज्ञानके पर्यायवाची शब्द हैं । अथवा प्रकृत में मति शब्द अभिधेयवाची है जिसके अनुसार यह अर्थ होता है कि मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध इनके द्वारा जो अर्थ कहा जाता है वह एक ही है ।
विशेषार्थ - इस सूत्र में मतिज्ञानके पर्यायवाची नाम दिये गये हैं । षट्खण्डागमके प्रकृति अनुयोगद्वार में भी मतिज्ञानके ये ही पर्यायवाची नाम आये हैं । अन्तर केवल यह है कि वहाँ विज्ञान नाम न देकर आभिनिबोधिकज्ञान नाम दिया है और फिर इसके संज्ञा, स्मृति, मति और चिन्ता ये चार पर्यायवाची नाम दिये हैं। इससे जो लोग प्रकृतमें मतिका अर्थ वर्तमान ज्ञान, स्मृतिका अर्थ स्मरणज्ञान, संज्ञाका अर्थ प्रत्यभिज्ञान, चिन्ताका अर्थ तर्क और अभिनिबोधका अर्थ अनुमान करते हैं वह विचारणीय हो जाता है । वास्तव में यहाँ इन नामोंका विविध ज्ञानों
1. आदी यदुद्दिष्ठं ज्ञानं मु. । 2. 'बहवो हि शब्दा: एकार्था भवन्ति । तद्यथा - 'इन्द्र: शक्रः पुरुहूत: पुरन्दरः ।' पा. म. भा. 11212145 3. संज्ञा: । सम - मु. 4. नातिवर्तत इति मु. ।
5. कारार्थं । एवं आ, दि. 1, दि 2 । 'हेतावेवं प्रकारे च व्यवच्छेदे विपर्यये । प्रादुर्भावे समाप्ती च इतिशब्दः प्रकीर्तितः । ' -अने. ना. श्लो. ।
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