________________
74] सर्वार्थसिद्धी
[1112 8 176 - प्रतिनियतमतोऽस्यापि ग्रहणं प्राप्नोति । सम्यगित्यधिकारात् तन्निवृत्तिः। सम्यगित्यनुवर्तते तेन ज्ञानं विशिष्यते ततो विभङ्गज्ञानस्य निवृत्तिः कृता । तद्धि मिथ्यावर्शनोदयाद्विपरीतार्थविषयमिति न सम्यक।
8177. स्यान्मतमिन्द्रियव्यापार जनितं ज्ञानं प्रत्यक्ष व्यतीतेन्द्रिय विषयव्यापार परोक्षमित्येतदविसंवादि लक्षणमभ्युपगन्तव्यमिति। तदयुक्तम्, आप्तस्य प्रत्यक्ष ज्ञानाभावप्रसङ्गात' यदि इन्द्रियनिमित्तमेव ज्ञानं प्रत्यक्षमिष्यते "एवं सति आप्तस्य प्रत्यक्षजानं न स्यात् । न हि तस्येन्द्रियपूर्वोऽर्थाधिगमः । अथ तस्यापि करणपूर्वकमेव ज्ञानं कल्प्यते, तस्यासर्वज्ञत्वं स्यात् । तस्य मानसं प्रत्यक्षमिति चेत् मनः प्रणिधानपूर्वकत्वात् ज्ञानस्य सर्वज्ञत्वाभाव एव । आगमतस्तत्सिद्विरिति चेत् । न ; तस्य' प्रत्यक्षज्ञानपूर्वकत्वात् ।
178 . योगिप्रत्यक्षमन्यज्ज्ञानं दिव्यमप्यस्तीति चेत् । न तस्य प्रत्यक्षत्वं ; इन्द्रियनिमित्तत्वाभावात् ; अक्ष मक्षं प्रति यद्वर्तते तत्प्रत्यक्षमित्यम्युपगमात् ।
8179. किंच सर्वज्ञत्वाभावः प्रतिज्ञाहानिर्वा । अस्य योगिनो यज्ज्ञानं तत्प्रत्यर्थवशवति का-यद्यपि इससे दर्शनका निराकरण हो जाता है तो भी विभंगज्ञान केवल आत्माके प्रति नियत है अतः उसका ग्रहण प्राप्त होता है ? समाधान-यहाँ 'सम्यक' पदका अधिकार है, अतः उसका निराकरण हो जाता है । तात्पर्य यह है की इस सूत्रमें 'सम्यक्' पदकी अनुवृत्ति होती है, जिससे ज्ञान विशेष्य हो जाता है इसलिए विभंगज्ञानका निराकरण हो जाता है। क्योंकि विभंगज्ञान मिथ्यादर्शनके उदयसे विपरीत पदार्थको विषय करता है, इसलिए वह समीचीन नहीं है।
6177. शंका-जो ज्ञान इन्द्रियोंके व्यापारसे उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष है और जो इन्द्रियोंके व्यापारसे रहित होकर विषयको ग्रहण करता है वह परोक्ष है। प्रत्यक्ष और परोक्षका यह अविसंवादी लक्षण मानना चाहिए? समाधान-यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि उक्त लक्षणके मानने पर आप्तके प्रत्यक्ष ज्ञानका अभाव प्राप्त होता है। यदि इन्द्रियोंके निमित्तसे होनेवाले ज्ञानको ही प्रत्यक्ष कहा जाता है तो ऐसा मानने पर आप्तके प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि आप्तके इन्द्रियपूर्वक पदार्थका ज्ञान नहीं होता। कदाचित् उसके भी इन्द्रियपूर्वक ही ज्ञान माना जाता है तो उसके सर्वज्ञता नहीं रहती। शंका- उसके मानस प्रत्यक्ष होता है | समाधान-मनके प्रयत्नसे ज्ञानकी उत्पत्ति मानने पर सर्वज्ञत्वका अभाव ही होता है । शंका - आगमसे सब पदार्थोंका ज्ञान हो जायगा । समाधान नहीं, क्योंकि आगम प्रत्यक्षज्ञानपूर्वक प्राप्त होता है।
8178. शंका-योगी प्रत्यक्ष नामका एक अन्य दिव्य ज्ञान है। समाधान-तो भी उसमें · प्रत्यक्षता नहीं बनती, क्योंकि वह इन्द्रियोंके निमित्तसे नहीं होता है। जिसकी प्रवृत्ति प्रत्येक इन्द्रियसे होती है वह प्रत्यक्ष है ऐसा आपके मतमें स्वीकार किया गया है।
6179. दूसरे प्रत्यक्षका पूर्वोक्त लक्षण माननेपर सर्वज्ञत्वका अभाव और प्रतिज्ञाहानि ने दो दोष आते हैं। विशेष इस प्रकार है-इस योगीके जो ज्ञान होता है वह प्रत्येक पदार्थको क्रमसे जानता है या अनेक अर्थोंको युगपत् जानता है। यदि प्रत्येक पदार्थको क्रमसे जानता है तो
1 रात् तस्तन्नि-मु.। 2. 'अक्षस्य अक्षस्य प्रतिविषयं वृत्तिः प्रत्यक्षम् ।' -1,1,3 न्याय. भा । 3. 'परोक्ष इत्युच्यते कि परोक्षं नाम । परमक्षण: परोक्षम् ।'-पा. म. मा. 3121211151 4. --प्रसंगता । यदि आ, दि. 1. दि. 2। 5. एवं प्रसक्त्या आप्त-म.। 6. 'युगपज्ज्ञानानुत्पत्ति: मनसो लिङ्गम् ।' -न्या. सू. 1111161 7. तस्य प्रागमस्य प्रत्य-मु.। 8. निमित्तामा-मु.। 9. 'अक्षमक्षं प्रति वर्तते तत्प्रत्यक्षम ।'-न्याय बिन्दु. टी. पु. 11।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org