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72]] सर्वार्थसिद्धौ
[11108173 - $ 173. 'उक्तस्य पञ्चविधस्य ज्ञानस्य प्रमाणद्वयान्तःपातित्वे प्रतिपादिते प्रत्याक्षानुमागादिप्रमाणद्वयकल्पनानिवृत्त्यर्थमाह
आद्ये परोक्षम् ॥1॥ 8174. आदिशन्दः प्राथम्यवचनः। आदौ भवमाद्यम् । कथं द्वयोः प्रथमत्वम् ? मुख्योपचारकल्पनया । मतिज्ञानं तावन्मुख्यकल्पनया प्रथमम् । श्रुतमपि तस्य प्रत्यासत्या प्रथममित्युपञ्चर्यते । द्विवचननिर्देशसामर्थ्याद गौणस्यापि ग्रहणम् । आद्यं च आद्यं च आये मतिश्रुते इत्यर्थः। तदुभयमपि परोक्षं प्रमाणमित्यभिसंबध्यते। कुतोऽस्य परोक्षत्वम् । परायत्तत्वात "मतिज्ञानं इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्" इति वक्ष्यते "श्रुतमनिन्द्रियस्य" इति च । अतः पराणोन्द्रियाणि मनश्च प्रकाशोपदेशादि च बाह्यनिमित्तं प्रतीत्य तदावरणकर्मक्षयोपशमापेक्षस्यात्मनो मतिश्रुतं उत्पद्यमानं परोक्षमित्या
ज्ञानको प्रमाण माननेपर प्रीति, अज्ञाननाश, त्यागबुद्धि, ग्रहणबुद्धि और उपेक्षाबुद्धि आदि अनेक फल बन जाते हैं। उन्होंने भी जब ज्ञानको प्रमाण माना है तब ये ही फल माने हैं। न्यायभाष्य में लिखा है कि 'जब ज्ञान प्रमाण होता है तब हानबद्धि, उपादानबद्धि और उपेक्षाबद्धि उसके फल प्राप्त होते हैं। इसलिए ज्ञानको ही सर्वत्र प्रमाण मानना चाहिए यही निष्कर्ष निकलता है। इससे पर्वोक्त सभी दोषोंका निराकरण हो जाता है। इसके अतिरिक्त इस सत्रकी टीकामें इन बातोंपर और प्रकाश डाला गया है-1. प्रमाणको निरुक्ति । 2. जीवादि पदार्थोके जाननेके लिए जैसे
ला अन्य प्रमाण अपेक्षित नहीं, इसका खलासा। प्रमाण माना गया है वैसे प्रमाणके जानने के लिए अन्य प्रम। 3. सूत्र में 'प्रमाणे' इस प्रकार द्विवचन रखनेका कारण। ये विषय सुगम हैं।
8173 पहले कहे गये पाँच कारकके ज्ञान दो प्रमाणोंमें आ जाते हैं इस प्रकार सुनिश्चित हो जाने पर भी वे दो प्रमाण प्रत्यक्ष और अनुमान आदिक भी हो सकते हैं अतः इस कल्पनाको दूर करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
प्रथम दो ज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं॥1॥ 8174. आदि शब्द प्राथम्यवाची है । जो आदिमें हो वह आद्य कहालता है। शंकादो प्रथम कैसे हो सकते हैं ? समाधान-पहला मुख्यकल्पनासे प्रथम है और दूसरा उपचार कल्पनासे प्रथम है। मतिज्ञान तो मुख्यकल्पनासे प्रथम है और श्रतज्ञान भी उसके समीपका होनेसे प्रथम है ऐसा उपचार किया जाता है। सूत्र में 'आद्य' इस प्रकार द्विवचनका निर्देश किया है अतः उसकी सामर्थ्यसे गौणका भी ग्रहण हो जाता है। 'आद्य' पदका समास 'आद्यच आद्य च आद्य' है। इससे मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दोनों लिये गये हैं। ये दोनों ज्ञान मिलकर परोक्ष प्रमाण हैं ऐसा यहाँ सम्बन्ध करना चाहिए। शका-ये दोनो ज्ञान परोक्ष क्यों हैं समाधान क्योंकि ये दोनों ज्ञान पराधीन हैं। 'मतिज्ञान इन्द्रिय और अनिन्द्रियके निमित्तसे होता है, यह आगे कहेंगे और 'अनिन्द्रियका विषय श्रत है' यह भी आगे कहेंगे। अतः 'पर' से यहाँ इन्द्रिय और मन तथा प्रकाश और उपदेश आदि बाह्य निमित्त लेने चाहिए । तात्पर्य यह है कि मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमकी अपेक्षा रखनेवाले आत्माके इन्द्रिय और मन तथा प्रकाश और उपदेशादिक बाह्य निमित्तोको अपेक्षा मोतज्ञान और श्रत
1. त्यर्थः । . --उपमानार्थापत्त्यादीनामत्रैवान्तर्भावादुक्त-मु.। 2. –क्षत्वम् ? परोपेक्षत्वात् । मति --आ., दि. 1, दि. 21
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