________________
70] सर्वार्थसिद्धौ
[11108169धिगमः फलं, तस्य द्विष्ठत्वात्तत्फलेनाधिगमेनापि द्विष्ठेन भवितव्यमिति अर्यादीनामप्यधिगमः प्राप्नोति । आत्मनश्चेतनत्वात्तत्रैव समवाय इति चेत् । न; ज्ञस्वभावाभावे सर्वेषामचेतनत्वात् । जस्वभावाभ्युपगमे वा आत्मनः स्वमतविरोधः स्यात् ।
170. ननु चोक्तं ज्ञाने प्रमाणे सति फलाभाव इति । नष दोषः; अर्थाधिगमे प्रीतिदर्शनात् । शस्त्रमावस्यात्मनः कर्ममलीम सस्य करणालम्बनावर्थ निश्चये प्रीतिरुपजायते। सा फनमित्युच्यते। उपेक्षा अज्ञाननाशो वा फलम् । रागद्वेषयोरप्रणिधानमुपेक्षा। अन्धकारकल्पाज्ञाननाशो वा फलमित्युच्यते।
171. प्रमिणोति प्रमीयतेऽनेन प्रमितिमात्रं वा प्रमाणम्। किमनेन प्रमीयते । जीवा-' दिरर्थः । यदि जीवादेरधिगमे प्रमाण प्रमाणाधिगमे च अन्यत्प्रमाण परिकल्पयितव्यम् । तथा सत्यनवस्था । नानवस्था प्रदीपवत् । यथा घटादीनां प्रकाशने प्रदीपो हेतुः स्वस्वरूपप्रकाशनेऽपि स एव, न प्रकाशान्तरं मृग्यं तथा प्रमाणमपीति अवश्यं चैतदभ्युपगन्तव्यम् । प्रमेयवत्प्रमाणस्य प्रमाणान्तरपरिकल्पनायां स्वाधिगमाभावात् स्मृत्यभावः । तदभावाद् व्यवहारलोपः स्यात् ।
समाधान -यह कहना यूक्त नहीं, क्योंकि यदि सन्निकर्षको प्रमाण और अर्थ के ज्ञानको फल मानते हैं तो सन्निकर्ष दो में रहनेवाला होनेसे उसके फलस्वरूप ज्ञानको भी दोमें रहनेवाला होना चाहिए इसलिए घट-पटादि पदार्थोके भी ज्ञानकी प्राप्ति होती है। शंका-आत्मा चेतन है, अतः उसीमें ज्ञानका समवाय है ? समाधान-नहीं, क्योंकि आत्माको ज्ञस्वभाव नहीं मानने पर सभी पदार्थ अचेतन प्राप्त होते हैं। यदि आत्माको ज्ञस्वभाव माना जाता है, तो स्वमतका विरोध होता है।
8170.. पहले पर्वपक्षीने जो यह कहा है कि ज्ञानको प्रमाण मानने पर फलका अभाव होता है सो यह कोई दोष नहीं; क्योंकि पदार्थके ज्ञान होने पर प्रीति देखी जाती है। यद्यपि आत्मा ज्ञस्वभाव है तो भी वह कर्मोंसे मलोन है अतः इन्द्रियों के आलम्बनसे पदार्थका निश्चय होने पर उसके जो प्रीति उत्पन्न होती है वही प्रमाणका फल कहा जाता है । अथवा उपेक्षा या अज्ञानका नाश प्रमाणका फल है। राग-द्वेषरूप परिणामोंका नहीं होना उपेक्षा है और अन्धकारके समान अज्ञानका दूर हो जाना अज्ञाननाश है । सो ये भी प्रमाण के फल हैं।
8171.प्रमाण शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-प्रमिणोति, प्रमीयतेऽनेन प्रमितिमात्रं वा प्रमाणम-जो अच्छी तरह मान करता है, जिसके द्वारा अच्छी तरह मान किया जाता है या प्रमितिमात्र प्रमाण है। शंका-प्रमाणके द्वारा क्या जाना जाता है ? समाधान-जीवादि पदार्थ जाने जाते हैं। शंका-यदि जीवादि पदार्थोंके ज्ञान में प्रमाण कारण है तो प्रमाणके ज्ञानके अन्य प्रमाणको कारण मानना चाहिए। और ऐसा माननेपर अनवस्था दोष प्राप्त होता है ? समाधानजीवादि पदार्थोंके ज्ञानमें प्रमाणको कारण मानने पर अनवस्था दोष नहीं आता, जैसे दीपक । जिस प्रकार घटादि पदार्थों के प्रकाश करने में दीपक हेतु है और अपने स्वरूपके प्रकाश करने में भी वही हेतु है, इसके लिए प्रकाशान्तर नहीं ढूंढना पड़ता। उसी प्रकार प्रमाण भी है यह बात अवश्य मान लेनी चाहिए। अब यदि प्रमेयके समान प्रमाणके लिए अन्य प्रमाण माना जाता है तो स्व का ज्ञान नहीं होनेसे स्मृति का अभाव हो जाता है और स्मृति का अभाव हो जानेसे व्यवहार का लोप हो जाता है।
1. 'अज्ञाननिवृत्तिहानोपादानोपेक्षाश्च फलम् ।-प. मु. 5191'यदा संनिकर्षस्तदा ज्ञान प्रमितिः । यदा ज्ञानं तदा हानोपादानोपेक्षाबुद्धयः फलम् ।'-11113 न्या. भा. । 2. -लाज्ञानाभाव: अज्ञाननाशो मु. । 3. -विगमे अन्य-मु.। 4. हेतु: तत्स्व-मु.। 5.न्तरमस्य मृग्यम्-मु. ।
Jain Education International
-For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org