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सर्वार्थसिद्धौ 194
[119 § 164परिगमनं मनः पर्ययः । मतिज्ञानप्रसङ्ग इति चेत्; न; अपेक्षामात्रत्वात् । क्षयोपशमशक्तिमात्रविजृम्भितं हि तत्केवलं स्वपरमनोभिर्व्यपदिश्यते । यथा अभ्रं चन्द्रमसं पश्येति । बाह्य नाग्यन्तरेण च तपसा यदर्थमथिनो मार्ग केवन्ते सेवन्ते तत्केवलम् । असहायमिति वा । तदन्ते प्राप्यते इति अन्ते क्रियते । तस्य प्रत्यासन्नत्वात्तत्समीपे मनःपर्ययग्रहणम् । कुतः प्रत्यासत्तिः । संयमका - धिकरणत्वात् । तस्य अवधिविप्रकृष्टः । कुतः विप्रकृष्टान्त' रत्वात् । प्रत्यक्षात्परोक्षं पूर्वमुक्तं सुगमत्वात् । श्रुतपरिचितानुभूता हि महितपद्धतिः सर्वेण प्राणिगणेन प्रायः प्राप्यते यतः । एवमेतत्पञ्चविधं ज्ञानम् । तद्भ ेदादयश्च पुरस्ताद्वक्ष्यन्ते ।
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8165. "प्रमाणनयेरधिगमः" इत्युक्तम् । प्रमाणं च केषांचित् ज्ञानमभिमतम् । केषांचित्
वाला होनेसे या परिमित विषयवाला होनेसे अवधि कहलाता है । मन:पर्ययका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ = दूसरेके मनोगत अर्थको मन कहते हैं । सम्बन्धसे उसका पर्ययण अर्थात् परिगमन करनेवाला ज्ञान मन:पर्यय कहलाता है। शंका- मन पर्यय ज्ञानका इस प्रकार लक्षण करने पर उसे मतिज्ञानका प्रसंग प्राप्त होता है ? समाधान - नहीं, क्योंकि मन:पर्ययज्ञानमें मनकी अपेक्षामात्र है । यद्यपि वह केवल बढ़ी हुई क्षयोपशम शक्तिसे अपना काम करता है तो भी केवल स्व और परके मनकी अपेक्षा उसका व्यवहार किया जाता है । यथा, 'आकाश में चन्द्रमा देखो' यहाँ आकाशकी अपेक्षामात्र होनेसे ऐसा व्यवहार किया गया है । केवलका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ = अर्थीजन जिसके लिए बाह्य और आभ्यन्तर तपके द्वारा मार्गका केवन अर्थात् सेवन करते हैं वह केवल - ज्ञान कहलाता है । अथवा केवल शब्द असहायवाची है, इसलिए असहाय ज्ञानको केवलज्ञान कहते हैं । केवलज्ञानकी प्राप्ति अन्तमें होती है इसलिए सूत्र में उसका पाठ सबके अन्त में रखा है । उसके समीपका होने से उसके समीप में मन:पर्ययका ग्रहण किया है। शंका- मन:पर्यय केवलज्ञानके समीपका क्यों है ? समाधान - क्योंकि इन दोनोंका संयम ही एक आधार है, अतएव मन:पर्यय केवलज्ञानके समीपका है । अवधिज्ञान मन:पर्ययज्ञानसे दूर है, इसलिए उसका मन:पर्ययज्ञानके पहले पाठ रखा है । शंका - मन:पर्ययज्ञानसे अवधिज्ञानको दूरका क्यों कहा ? समाधान क्योंकि अवधिज्ञान मन:पर्ययज्ञानसे अत्यन्त दूर है । प्रत्यक्षसे परोक्षका पहले कथन किया, क्योंकि वह सुगम है। चूंकि मति श्रुतपद्धति श्रुत, परिचित और अनुभूत होनेसे प्रायः सब प्राणियोंके द्वारा प्राप्त करने योग्य है अतः वह सुगम है । इस प्रकार यह पाँच प्रकारका ज्ञान है । इसके भेद आदि आगे कहेंगे ।
विशेषार्थ - क्रमानुसार इस सूत्रमें सम्यग्ज्ञानके पाँच भेद बतलाये गये हैं । यद्यपि सूत्र में 'ज्ञानम्' ऐसा निर्देश किया है पर सम्यक्त्वका प्रकरण होने से ये पाँचों सम्यग्ज्ञानके भेद हैं, ऐसा यहाँ जानना चाहिए । यद्यपि आत्मा केवलज्ञान स्वभाव है । मूल ज्ञानमें कोई भेद नहीं है पर आवरणके भेदसे वह पाँच भागों में विभक्त हो जाता है। इस सूत्रकी व्याख्या करते हुए सर्वार्थसिद्धि में मुख्यतया तीन विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है - 1. मति आदि शब्दोंका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ । 2. मति और श्रुतको समीपमें रखनेके कारणका निर्देश 3. मतिके बाद श्रुत इत्यादि रूपसे पाँच ज्ञानोंके निर्देश करनेका कारण ।
8 165. प्रमाण और नयसे ज्ञान होता है यह पहले कह आये हैं । किन्होंने ज्ञानको प्रमाण
1. विप्रकृष्टतर - मु.
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2. 'सुदपरिचिदाणुभूदास. प्रा. मा. 41
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