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- 112 8 176] प्रथमोऽध्यायः
[73 ल्यायते । अत उपमानागमादीनामत्रवान्तर्भावः। 8 175. अभिहितलक्षणात्परोक्षादितरस्य सर्वस्य प्रत्यक्षत्वप्रतिपादनार्थमाह--
प्रत्यक्षमन्यत् ॥12॥ 8176. अक्षणोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा। तमेव प्राप्तक्षयोपशम प्रक्षीणावरण या प्रतिनियतं प्रत्यक्षम् । अवधिदर्शनं केवलदर्शनमपि अक्षमेव प्रतिनियतमतस्तस्यापि ग्रहणं प्राप्नोति। नैष दोषः; ज्ञानमित्यनुवर्तते, तेन दर्शनस्य व्यदासः। एवमपि विभडज्ञानमक्षमेय उत्पन्न होते हैं अतः ये परोक्ष कहलाते हैं । उपमान और आगमादिक भी ऐसे ही हैं अतः इनको... भी इन्हींमें अन्तर्भाव हो जाता है।
विशेषार्थ-पिछले सूत्र में दो प्रकारके प्रमाणोंका उल्लेख कर आये हैं। वे दो प्रमाण कौन हैं और उनमें पाँच ज्ञानोंका कैसे विभाग होता है यह बतलाना शेष है, अत: ग्यारहवें और बारहवें सूत्रों द्वारा यही बतलाया गया है। उसमें भी ग्यारहवें सूत्र द्वारा प्रमाणके पहले भेदकी परोक्ष संज्ञा बतलाकर उसमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका अन्तर्भाव किया गया है। दूसरे लोग जो इन्द्रियोंका अविषय है उसे परोक्ष कहते हैं। किन्तु जैन परम्परामें परोक्षता और प्रत्यक्षता यह ज्ञानका धर्म मानकर उस प्रकारसे उनकी व्याख्या की गयी है। जैन परम्पराके अनुसार, परकी सहायतासे जो अक्ष अर्थात् आत्माके ज्ञान होता है वह परोक्ष ज्ञान कहलता है परोक्ष शब्दका म अर्थ लिया गया है। मतिज्ञान और श्रतज्ञान ये दोनों ज्ञान ऐसे हैं जो यथासम्भव इन्द्रिय. मन तथा प्रकाश और उपदेश आदिके बिना नहीं हो सकते, अत: ये दोनों परोक्ष माने गये हैं। दार्शनिक ग्रन्थोंमें इन्द्रिय ज्ञानका सांव्यवहारिक प्रत्यक्षरूपसे उल्लेख देखनेको मिलता है। सो यह कथन औपचारिक जानना चाहिए। दूसरे लोगोंने अक्षका अर्थ इन्द्रिय करके इन्द्रियज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है। वहाँ इसी अपेक्षासे इन्द्रिय ज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष लिखा गया है ऐसा यहां जानना चाहिए। वस्तुतः आत्माके सिवा अन्य निमित्तसे जितना भी ज्ञान होता है वह सब परोक्ष ही है। उपमान, आगम आदि और जितने ज्ञान हैं वे भी अन्यकी अपेक्षाके बिना नहीं होते अतः उनका इन्हीं ज्ञानोंमें अन्तर्भाव हो जानेसे मुख्यतः परोक्ष ज्ञान दो ही ठहरते हैं एक मतिज्ञान और दसरा श्रतज्ञान । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि ये ज्ञान केवल बाह्य निमित्तसे नहीं होते हैं। मुख्यतया इनकी उत्पत्तिमें मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम आवश्यक है। आत्माकी ऐसी योग्यता हए, बिना ये ज्ञान नहीं होते। ऐसी योग्यताके होने पर बाह्यनिमित्त सापेक्ष इनकी प्रवृत्ति होती है यह उक्त कथनाका सार है।
8175 परोक्षका लक्षण कहा । इससे बांकीके सब ज्ञान प्रत्यक्ष हैं इस बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
शेष सब ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण है ॥12॥
8176 अक्ष शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा। अक्ष, व्याप और ज्ञा ये धातुएँ एकार्थक हैं, इसलिए अक्षका अर्थ आत्मा होता है । इस प्रकार क्षयोपशमवाले या आवरणरहित केवल आत्माके प्रति जो नियत है अर्थात् जो ज्ञान बाह्य
न्द्रयादिककी अपेक्षासे न होकर केवल क्षयोपशमवाले या आवरणरहित आत्मासे होता है वह प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है। शंका-अवधिदर्शन और केवलदर्शन भी अक्ष अर्थात आत्माके प्रति नियत हैं अतः प्रत्यक्ष शब्दके द्वारा उनका भी ग्रहण प्राप्त होता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि प्रकृतमें ज्ञान शब्दकी अनुवृत्ति है, जिससे दर्शनका निराकरण हो जाता है। 1.-ज्ञानमपि प्रति-म.।
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