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-11108172] प्रथमोऽध्यायः
[71 8172. वक्ष्यमाणभेदापेक्षया द्विवचन निर्देशः । वक्ष्यते हि "आद्य परोक्षम्, प्रत्यक्षमन्यद्" इति स च द्विवचननिर्देशः प्रमाणान्तरसंख्यानिवृत्त्यर्थः ।
8 72. सूत्र में आगे कहे जानेवाले भेदोंकी अपेक्षा द्विवचनका निर्देश किया है। आगे कहेंगे 'आद्य परोक्षम, प्रत्यक्षमन्यत्।' यह द्विवचनका निर्देश प्रमाणकी अन्य संख्या के निराकरण करनेके लिए किया है।
विशेषार्थ-पिछले सूत्र में पाँच सम्यग्ज्ञानोंकी चर्चा करके इस सूत्र में उनकी प्रमाणता बतलायी गयी है। यों तो सम्यग्ज्ञान कहनेसे उनकी प्रमाणता सुतरां सिद्ध है, किन्तु दर्शनान्तरों में ज्ञानको मूख्यतया प्रमाण न मान कर सन्निकर्ष या इन्द्रिय आदिको प्रमाण माना गया है, इसलिए यहाँपर सन्निकर्ष आदि प्रमाण नहीं हैं, किन्तु ज्ञान ही प्रमाण है यह बतलाया गया है। सर्वार्थसिद्धि टीकामें मुख्यतया दो मतोंका उल्लेख करके उनकी आलोचना की गयी है। ये दोनों मत नैयायिक सम्मत हैं। नैयायिकोंने प्रत्यक्ष ज्ञानकी उत्पत्तिमें सन्निकर्ष और इन्द्रिय दोनोंको प्रमाण माना है। सन्निकर्ष प्रमाण है इस मत का उल्लेख न्यायभाष्यमें और इन्द्रिय प्रमाण है इस मतका उल्लेख उद्योतकरके न्यायवार्तिकमें पाया जाता है। परन्तु सर्वार्थसिद्धिकारने जब इस दुसरे मतका उल्लेख किया है, तो यह भी प्रथम मतके समान प्राचीन प्रतीत होता है। बहुत सम्भव है कि इस द्वारा सर्वार्थसिद्धिकारने सांख्यके 'इन्द्रियवृत्ति प्रमाण है इस मतका उल्लेख किया हो तो कोई आश्चर्य नहीं। नैयायिक लोग प्रत्यक्षज्ञानकी उत्पत्तिमें सन्निकर्षको असाधारण कारण मानकर उसे प्रमाण मानते हैं। किन्तु आगे चलकर करणके 'असाधारण कारणको करण कहते हैं। इस लक्षणके स्थानमें 'व्यापारवाले कारणको करण कहते हैं यह लक्षण भी प्रचलित हो गया जिससे सन्निकर्षके साथ उनके यहाँ इन्द्रियाँ भी प्रमाण मानी जाने लगीं। वे जब सन्निकर्षको प्रमाण मानते हैं तब ज्ञान उसका फल मान लिया जाता है और जब इन्द्रियों को प्रमाण मानते हैं तब भी सन्निकर्षको इन्द्रियोंका व्यापार मानकर ज्ञान उनका फल मान लिया जाता है। इसका यह अर्थ नहीं कि वे ज्ञानको प्रमाण ही नहीं मानते। उनके यहाँ ज्ञानको भी प्रमाण माना गया है। जब वे ज्ञानको प्रमाण मानते हैं तब हानबुद्धि और आदानबुद्धि और उपेक्षाबुद्धि उसका फल माना जाता है किन्तु नैयायिकोंकी सन्निकर्ष और इन्द्रियको प्रमाण माननेकी बात समीचीन नहीं है यही निर्णय इस सत्रकी टीकामें किया गया है। सन्निकर्षको प्रमाण मानने में जो दोष प्राप्त होते हैं वे इस प्रकार हैं-1. सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थोंका ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए सर्वज्ञताका अभाव होता है 2. चक्ष और मनसे ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि ये अप्राप्यकारी हैं। 3. प्रत्येक इन्द्रियका अलग-अलग विषय मानना उचित नहीं, क्योंकि चक्षका रूपके साथ सन्निकर्ष पाया जानेसे जैसे वह रूपज्ञानका जनक है उसी प्रकार उसका रसके साथ भी सन्निकर्ष पाया जाता है अतः उससे रसका भी ज्ञान होना चाहिए। 4. सन्निकर्ष एकका न होकर इन्द्रिय और अर्थ इन दो या दोसे अधिकका होता है अत: सन्निकर्षका फल जो ज्ञान है वह भी दोनोंमें होना चाहिए। इन्द्रियको प्रमाण मानने में ये दोष आते हैं -1. सर्वज्ञताका अभाव होता है, क्योंकि इन्द्रियाँ सब पदार्थोंको एक साथ जाननेमें असमर्थ हैं । 2. इन्द्रियोंसे सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थोंका ज्ञान सम्भव न होनेसे भी सर्वज्ञताका अभाव होता है। 3. अनुमान आदि ज्ञानोंकी उत्पत्ति नहीं हो सकेगो, क्योंकि इन ज्ञानोंको उत्पत्ति इन्द्रियोंसे नहीं होती। सन्निकर्ष और इन्द्रियको प्रमाण मानने पर इसी प्रकार और भी दोष आते हैं। सन्निकर्ष और इन्द्रियको प्रमाण माननेवाले लोग ज्ञानको प्रमाण माननेपर एक बड़ी भारी आपत्ति यह देते हैं कि यदि ज्ञानको प्रमाण माना जाता है तो प्रमाण निष्फल हो जाता है। किन्तु उनकी यह आपत्ति भी समीचीन नहीं है, क्योंकि
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