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301 सर्वार्थसिद्धौ
[118861861. विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगतौ सर्वासु पृथिवीषु नारकाणां चतुर्ष गुणस्थानेषु लोकस्यासंख्येयभागः। तिर्यग्गतो तिरश्चां मिथ्यादृष्ट्या विसंयतासंयतान्तानां सामान्योक्त क्षेत्रम्। मनुष्यगतो मनुष्याणां मिथ्यादृष्ट्याद्ययोगकेवल्यन्तानां लोकस्यासंख्येयभागः । सयोगकेवलिनां सामान्योक्तं क्षेत्रम् देवगतौ देवानां सर्वेषां चतुर्ष गुणस्थानेषु लोकस्यासंख्येयभागः।
62. इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियाणां क्षेत्रं सर्वलोकः । विकलेन्द्रियाणां लोकस्यासंख्येयभागः । पञ्चेन्द्रियाणां मनुष्यवत् ।
863. कायानुवादेन पृषिवीकायादिवनस्पतिकायान्तानां सर्वलोकः। सकायिकानां पञ्चेन्द्रियवत् ।
864. योगानुवादेन वाङ्मनसयोगिनां मिथ्यादृष्ट्यादिसयोगकेवल्यन्तानां लोकस्यासंख्येयभागः । काययोगिनां मिथ्यादृष्ट्यादिसयोगकेवल्यन्तानामयोगकेवलिनां च सामान्योक्तं क्षेत्रम् ।
865. वेदानुवादेन 'स्त्रीवेदानां मिथ्यादृष्ट्याद्यनिवृत्तिबादरान्तानां लोकस्यासंख्येयभागः । नपुंसकवेवानां मिथ्यादृष्ट्याद्यनिवृत्तिबादरान्तानामपगतवेदानां च सामान्योक्तं क्षेत्रम् ।
866. कषायानुवादेन क्रोधमानमायाकषायाणां श्लोभकषायाणां च मिथ्यादृष्ट्यायनिवृत्तिबावरान्तानां सूक्ष्मतापरायाणामकषायाणां च सामान्योक्तं क्षेत्रम्।
861. विशेषकी अपेक्षा गति मार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें सब पृथिवियों में नारकियोंका चार गुणस्थानोंमें लोकका असंख्यातवां भाग क्षेत्र है। तिर्यंचगतिमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवाले तिर्यंचोंका क्षेत्र सामान्यवत् है । अर्थात् मिथ्यादृष्टि तियंचोंका सब लोक क्षेत्र है और शेष तिर्यंचोंका लोकका असंख्यातवां भाग क्षेत्र है। मनुष्यगतिमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर अयोगकेवली तक प्रत्येक गुणस्थानवाले मनुष्योंका क्षेत्र लोकका असंख्यातवाँ भाग है । सयोगकेवलियोंका सामान्यवत् क्षेत्र है। देवगतिमें सब देवोंका चार गुणस्थानों में लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है।
62. इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंका सब लोक क्षेत्र है। विकलेन्द्रियोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है और पंचेन्द्रियोंका मनुष्योंके समान क्षेत्र है।
863. काय मार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायसे लेकर वनस्पतिकाय तकके जीवोंका सब लोक क्षेत्र है। त्रसकायिकोंका पंचेन्द्रियोंके समान क्षेत्र है।
864. योग मार्गणाके अनुवादसे मिथ्यादष्टिसे लेकर सयोगकेवली तक प्रत्येक गणस्थानवाले वचन योगी और मनोयोगी जीवोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है । मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवली तक प्रत्येक गुणस्थानवाले काययोगी जीवोंका और अयोगकेवली जीवोंका सामान्यवत् क्षेत्र है।
865. वेदमार्गणाके अनुवादसे मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्ति बादर तक प्रत्येक गुणस्थानवाले स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है। तथा मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिबादर तक प्रत्येक गुणस्थानवाले नपुंसकवेदी जीवों का और अपगतवेदियों का सामान्यवत् क्षेत्र है।
66. कषायमार्गणाके अनुवादसे मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिबादर तक प्रत्येक गुणस्थानवाले क्रोध, मान, माया व लोभ कषायवाले, सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें लोभ कषायवाले और कषाय रहित जीवोंका सामान्यवत् क्षेत्र है। 1. स्त्रीपुंसवेदा-ता.। 2.-मायालोम-मा., दि. 2। मायानां लोम-दि. 11 .
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