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सर्वार्थसिद्धौ
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अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि की अभिव्यक्ति लक्षणवाला सराग सम्यग्दर्शन है और आत्माकी विशुद्धिमात्र वीतराग सम्यग्दर्शन है !
विशेषार्थ -- इस सूत्र में सम्यग्दर्शनके लक्षणका निर्देश करते हुए बतलाया है कि जीवादि पदार्थोंके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं । इस सूत्रकी व्याख्या करते हुए टीका में मुख्यतया चार बातोंको स्पष्ट किया गया है। वे चार बातें ये हैं- ( 1 ) तत्त्व और अर्थ शब्दके निरुक्त्यर्थ का निर्देश करके तत्त्वार्थ शब्द कैसे निष्पन्न हुआ है ? (2) 'दृशि' धातुका अर्थ श्रद्धान करना क्यों लिया गया है ? ( 3 ) तत्त्व और अर्थ इन दोनों पदोंको स्वीकार करनेसे क्या लाभ है ? (4). सम्यग्दर्शनके कितने भेद हैं और उनका क्या स्वरूप है ? प्रकृतमें यद्यपि 'तत्' सर्वनाम पद है और 'त्व' प्रत्यय भाव अर्थ में आया है, अतः 'तत्त्व' शब्द भाव सामान्यका वाचक है और अर्थपद द्रव्यवाची है । तथापि अर्थ शब्द के धन, प्रयोजन, अभिधेय, निवृत्ति, विषय, प्रकार और वस्तु आदि अनेक अर्थ पाये जाते हैं, अतः इन सबका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन न कहलावे, इसलिए तो सूत्रकारने सूत्र में केवल अर्थपद नहीं रखा है। इसी प्रकार विभिन्न मतोंमें तत्त्व शब्दके भी अनेक अर्थ प्रसिद्ध हैं । वैशेषिक लोग 'तत्त्व' पदसे सत्ता, द्रव्यत्व, गुणत्व और कर्मत्वका ग्रहण करते हैं । उनके यहाँ सामान्य और विशेष ये दोनों स्वतन्त्र पदार्थ माने गये हैं । अब यदि सूत्र में केवल 'तत्त्व' पद रखा जाता है तो सत्ता, द्रव्यत्व, गुणत्व और कर्मत्व इनका श्रद्धान करना भी सम्यग्दर्शन समझा जा सकता है जो युक्त नहीं है, इसलिए सूत्रकारने सूत्रमें केवल तत्त्वपद नहीं रखा है। इसी प्रकार परमब्रह्मवादियोंने नाना तत्त्वोंको न मानकर ब्रह्मनामका एक ही तत्त्व माना है । उनके मतसे यह जग एक पुरुषरूप ही है, इसलिए इस हिसाब से विचार करनेपर 'तत्व' पद एक ब्रह्मका वाची प्राप्त होता है जो युक्त नहीं है, इसलिए भी सूत्रकारने सूत्र में केवल तत्त्वपद नहीं रखा है । यहाँ तत्त्वार्थसे जीवादिक वे सब पदार्थ लिये गये हैं जिनका आगे चौथे सूत्र में वर्णन किया है। परमार्थरूप का श्रद्धात करना सम्यग्दर्शन है यह इस सूत्रका तात्पर्य है । सम्यग्दर्शनमें दर्शन शब्द आया है। उसका एक अर्थ आलोक होता है तथापि यहाँ इसका श्रद्धान अर्थ लिया गया है, क्योंकि दर्शनका जालोक अर्थ लेनेपर चक्षु आदि निि
नेके कारण वह चक्षुरिन्द्रिय आदि सब संसारी जीवोंके प्राप्त होता है, अतः प्रकृतमें वह उपयो नही ठहरता । किन्तु स्वार्थ विषयक श्रद्धान भव्यों में भी किसी-किसी आसन्नभव्यके ही प जाता है जो प्रकृतमें उपयोगी है, अतः यहाँ दर्शनका अर्थ आलोक न करके श्रद्धान किया है आशय यह है कि जीवादि नौ पदार्थोमं भूतार्थरूपसे एक त्रिकालोअखण्डआत्मा ही प्रयोतित हो रहा है, अतः ऐसे निजात्माकी अनुभूति ही सम्यग्दर्शन हैं । प्रत्येक आत्मा स्वयं ज्ञानस्वरूप है, अतः ज्ञानानुभूति ही आत्मानुभूति है और वही सम्यग्दर्शन है यह इसका भाव है। प्रत सम्यग्दर्शनके जो दो भेद किये गये हैं-एक सराय सम्यग्दर्शन और दूसरा वीतराग सम्यग्दर्शन सो प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य ये बात ऐसे विल हैं जो आत्मविशुद्धिरूप परमार्थ सम्यग्दर्शन के ज्ञापक हैं। इसलिए इस अपेक्षा व्यवहार से इन्हें भी सम्यग्दर्शन है । किन्तु इसे जो परमार्थस्वरूप जानते हैं यह उनकी भूल है। नियम यह है कि जिलनी सम्यग्दर्शनादि स्वभावपर्याय होती हैं, वे मात्र स्वत. सिद्ध, अनादि-अनन्त, कर्म से होने के कारण नित्य उद्योतस्वरूप और विशद ज्योतिज्ञापक आत्माका अपने उपयोगक अवलम्बन लेनेसे ही उत्पन्न होती हैं । इसीलिए भूलमें सम्यग्दर्शनरूप स्वभावपर्यायको आत्मविशुद्धिमात्र कहा है, क्योंकि यह मिथ्यात्व आदि कर्मोके उदयमें न होकर उनके उपशम, क्षय और क्षयोपशमके होने पर ही होता है। इतना अवश्य है कि यह सम्यग्दर्शन चौथे आदि गुणस्थानों में भी पाया जाता है, अतः इसके सद्भावमें जो पराश्रित प्रशमादि भाव होते हैं
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