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सर्वार्थसिद्धौ
[114 § 20
8 20. तत्त्वशब्दो भाववाचीत्युक्तः । स कथं जीवादिभिर्द्रव्यवचनैः सामानाधिकरण्यं प्रतिपद्यते ? अव्यतिरेकात्तद्भावाध्यारोपाच्च सामानाधिकरण्यं भवति । यथा 'उपयोग एवात्मा' इति । यद्येवं तत्तल्लिङ्गसंख्यानुवृत्तिः प्राप्नोति ? "विशेषणविशेष्यसंबन्धे सत्यपि शब्दशक्ति-व्यपेक्षया उपात्तलिङ्ग-संख्याव्यतिक्रमो न भवति । अयं क्रम आदिसूत्रेऽपि योज्यः ।
$ 21. एवमेषामुद्दिष्टानां सम्यग्दर्शनादीनां जीवादीनां च संव्यवहार बिशेषव्यभिचारनिवृत्त्यर्थमाह
S 20. शंका-तत्त्व शब्द भाववाची है यह पहले कह आये हैं, इसलिए उसका द्रव्यवाची जीवादि शब्दों के साथ समानाधिकरण कैसे हो सकता है ? समाधान - एक तो भाव द्रव्यसे अलग नहीं पाया जाता, दूसरे भावमें द्रव्यका अध्यारोप कर लिया जाता है, इसलिए समानाधिकरण बन जाता है । जैसे, 'उपयोग ही आत्मा है' इस वचनमें गुणवाची उपयोग शब्दके साथ द्रव्यवाची आत्मा शब्दका समानाधिकरण है उसी प्रकार प्रकृत में जानना चाहिए। शंका-यदि ऐसा है तो विशेष्यका जो लिंग . और संख्या है वही विशेषणको भी प्राप्त होते हैं ? समाधान –व्याकरणका ऐसा नियम है कि 'विशेषण - विशेष्य सम्बन्धके रहते हुए भी शब्द शक्तिकी अपेक्षा जिसने जो लिंग और संख्या प्राप्त कर ली है उसका उल्लंघन नहीं होता ।' अतः यहाँ विशेष्य और विशेषणसेलिंग और संख्या अलग-अलग रहने पर भी कोई दोष नहीं है । यह क्रम प्रथम सूत्रमें भी लगा लेना चाहिए ।
विशेषार्थ - इस सूत्र में सात तत्त्वोंका निर्देश किया गया है। इसकी व्याख्या करते हुए मुख्यतया पाँच बातोंपर प्रकाश डाला गया है, जो इस प्रकार हैं- ( 1 ) जीवादि सात तत्त्वोंका स्वरूप-निर्देश । (2) सूत्रमें जीव अजीव इस क्रमसे सात तत्त्वों के निर्देश करनेकी सार्थकता । (3) पुण्य और पापको पृथक् तत्त्व नहीं सूचित करनेका कारण । (4) भाववाची शब्दोंका द्रव्यवाची शब्दोंके साथ कैसे समानाधिकरण बनता है इसकी सिद्धि | ( 5 ) विशेषण और विशेष्य में समान लिंग और समान संख्या क्यों आवश्यक नहीं इसका निर्देश । तीसरी बातको स्पष्ट करते हुए जो लिखा है उसका आशय यह है कि जीवकी शुभाशुभ प्रवृत्तिके आधारसे बँधनेवाले कर्मों में अनुभाग के अनुसार पुण्य-पापका विभाग होता है, इसलिए आस्रव और बन्धमें इनका अन्तर्भाव किया गया है। पाँचवीं बातको स्पष्ट करते हुए जो यह लिखा है कि विशेषणविशेष्य सम्बन्धके रहते हुए भी शब्द शक्तिकी अपेक्षा जिसने जो लिंग और संख्या प्राप्त कर ली है उसका उल्लंघन नहीं होता, सो इसका यह आशय है कि एक तो जिस शब्दका जो 'लिंग है वह नहीं बदलता । उदाहरणार्थ 'ज्ञानं आत्मा' इस प्रयोगसे ज्ञान शब्द नपुंसक लिंग और आत्मा शब्द पुलिंग रहते हुए भी इनमें बदल नहीं होता । इन दोनों शब्दोंका विशेषण विशेष्य रूपसे जब भी प्रयोग किया जायेगा तब वह इसी प्रकार ही किया जायेगा। दूसरे, प्रयोगके समय जिस शब्द ने जो संख्या प्राप्त कर ली है उसमें भी बदल नहीं होता। जैसे 'साधोः कार्यं तपः श्रुते' इस प्रयोग में विशेषण- विशेष्य सम्बन्धके रहते हुए भी 'कार्यम्' एकवचन है और 'तपःश्रुते' द्विवचन है । इसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिए। शेष कथन सुगम है ।
821. इस प्रकार पहले जो सम्यग्दर्शन आदि और जीवादि पदार्थ कहे हैं उनका शब्द प्रयोग करते समय विवक्षाभेदसे जो गड़बड़ी होना सम्भव है उसको दूर करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
1. 'आविष्टलिंगा जातिर्यल्लिगमुपादाय प्रवत्त ते उत्पत्तिप्रभृत्या विनाशान्न सल्लिंगं जहाति ।' पा. 11212531 अन्येऽपि वै गुणवचना नावश्यं द्रव्यस्य लिंगसंख्ये अनुवर्तन्ते । -- पा. म. भा. 511111591
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