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सर्वार्थ सिद्धौ
[1178 27नुवादेन आभिनिबोधिकश्रुतावधिकमनःपर्ययज्ञानिनां त्रितयमप्यस्ति । केवलज्ञानिनां क्षायिकमेव । संयमानुवादेन सामायिकच्छेदोपस्थापनासंयतानां त्रितयमप्यस्ति। परिहारविशुद्धिरायतानामोपशमिकं नारित, इत:द द्वितयमस्ति . मुझमसांपराययथास्यातसंबतानामौपशामकं क्षायिकं चास्ति, संयतासंयतानां असंवतानां च त्रितवमप्यस्ति । दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शतावधिदर्शनिना त्रितयमप्यस्ति, केव प्रदर्शनिक क्षायिक मेव । लेक्ष्य नुवादेन षड्लेश्यानां त्रितयमप्यस्ति, अलेश्यानां क्षाधिकमेव । भव्यानवादेन भन्यानां त्रितयमप्यस्ति, नाभव्यानाम । सम्यक्त्वानुवादेन यत्र यत्सम्यग्दर्शनं तत्र तव जयम ! संज्ञानवदेन संजिनां त्रिनयमप्यस्ति, नासंज्ञिनाम, तदुभयध्यप देशहितानां क्षायिकमेव । आहारानुवादेन आहारकाणां त्रितयमप्यस्ति, अनाहारकाणां छद्मस्थानां त्रितयमप्यस्ति, केवलिनां समुद्घातगतानां क्षायिकमेव । औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यग्दर्शन होते हैं। ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे आभिनिबोधिक ज्ञानी, धतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु केवलज्ञानी जीवों के एक क्षायिक सम्यन्दन ही होता है। संयममार्गणाके अनुवादसे सामायिक और छेदोपस्थापना संयत जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, परिहारविशद्धिसंयतोंके औपशमिक सम्यग्दर्शन नहीं होता, शेष दो होते हैं। सूक्ष्मसाम्परायिकसयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके औपशमिक और क्षायिक सम्यग्दर्शन होते हैं, संयतासंयत और असंयत जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं। दर्शनमार्गगाके अनुवादसे चक्षदर्शनवाले, अचक्षदर्शन और अवधिदर्शनवाले जीवोंके तोनों सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु कवलदर्शनवाले जीवोके एक क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है। लेश्यामार्गणाके अनुवादसे छहों लेश्यावाले जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु लेश्यारहित जीवोंके एक क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है। भव्य मार्गणाके अनुवादसे भव्य जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, अभव्योंके कोई भी सम्यग्दर्शन नहीं होता। सम्यक्त्व मार्गणाके अनवादसे जहाँ जो सम्यग्दर्शन है वहाँ वही जानना । संज्ञामार्गणाके अनुवादसे संज्ञी जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, अमंडियोंके कोई भी सम्यग्दर्शन नहीं होता तथा संज्ञी और असंज्ञी इस संज्ञासे रहित जोवोंके एक क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है। आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारकों के तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, अनाहारक छद्मस्थोंके भी तोनों सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु समुद्घातनत केवली अनाहारकोंके एक क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है।
विशेषार्थ-पदार्थोके विवेचन करनेकी प्राचीन दो परम्पराएं रही हैं—निर्देश आदि छह अधिकारों द्वारा विवेचन करनेकी एक परम्परा और सदादि आठ अधिकारों द्वारा विवेचन करनेकी दूसरी परम्परा । यहाँ तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता गृद्धपिच्छ आचार्यने 7वें और 6व सूत्रों द्वारा इन्हीं दो परम्पराओंका निर्देश किया है। यहाँ टोकामें निर्देश आदिके स्वरूपका कथन करके उन द्वारा सम्यग्दर्शनका विचार किया गया है। उसमें भी स्वामित्वकी अपेक्षा जो कथन किया हे उसका भाव समझनके लिए यहाँ मुख्य वाताका उल्लेख कर दना आवश्यक प्रतीत होता है। इन बातोंको ध्यान में रखनेसे चारों गतियोंमें किस अवस्थामें कहाँ कौन सम्यग्दर्शन होता है इसका निर्णय करनेमें सहायता मिलती है। वे बातें ये हैं-1. क्षायिक सम्यग्दर्शनका प्रस्थापक कर्मभूमिका मनुष्य ही होता है। किन्तु ऐमा जीव कृतकृत्यवेदक सम्यग्दष्टि या क्षायिक सम्यग्दष्टि हो जाने के बाद मरकर चारों गतियोंमें जन्म ले सकता है। 2. नरकमें उक्त जीव प्रथम नरक में ही जाता है। दूमरे आदि नरकोंमें कोई भी सम्यग्दृष्टि मरकर नहीं उत्पन्न होता । 3. तिर्यचोम व मनुष्योंमें उक्त जीव उत्तम भोगभूमिके पुरुषवेदी तिर्यंचोंमें व मनुष्योंमें ही उत्पन्न 1. संयतासंयवानां च म । 2. -तयमस्ति ता. ।
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