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प्रथमोऽध्यायः मौपशमिकमस्ति । क्षायिक क्षायोपशमिकं च पर्याप्तापर्याप्तकानामस्ति। तिरश्चीनां क्षायिकनास्ति। औपशमिकं क्षायोपशमिकं च पर्याप्तिकानामेव नापर्याप्तिकानाम् । मनुष्यगतौ मनुष्याणां पर्याप्तापर्याप्तकानां क्षायिकं क्षायोपशमिकं चास्ति । औपशमिकं पर्याप्तकानामेव नापर्याप्तकानाम् । मानुषीणां त्रितयमप्यस्ति पर्याप्तिकानामेव नापर्याप्तिकानाम् । देवगतौ देवानां पर्याप्तापर्याप्तकानां त्रितयमप्यस्ति । औपशमिकमपर्याप्तकानां कथमिति चेच्चारित्रमोहोपशमेन सह मृतान्प्रति । भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्काणां देवानां देवीनां च सौधर्मशानकल्पवासिनीनां च क्षायिकं नास्ति । तेषां पर्याप्तकानामौपशमिकं क्षायोपशमिकं चास्ति।
27. इन्द्रियानुवादेन पञ्चेन्द्रियाणां संजिनां त्रितयमप्यस्ति नेतरेषाम् । कायानुवादेन प्रसकायिकानां त्रितयमप्यस्ति नेतरेषाम् । योगानुवादेन त्रयाणां योगानां त्रितयमप्यस्ति । अयोगिनां क्षायिकमेव । वेदानुवादेन त्रिवेदानां त्रितयमप्यस्ति । अपगतवेदानामौपशमिकं क्षायिकं चास्ति । कषायानुवादेन चतुष्कषायाणां त्रितयमप्यस्ति । अकषायाणामोपशमिकं क्षायिकं चास्ति । ज्ञानापृथिवियोंमें पर्याप्तक नारकियोंके औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। पहली पथिवीमें पर्याप्तक और अपर्याप्तक नारकियोंके क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता
। तिर्यंचगतिमें पर्याप्तक तिर्यंचोंके औपशमिक सम्यग्दर्शन होता है । क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों प्रकारके तिर्यंचोंके होता है। तिर्यंचनीके क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता । औपशमिक और क्षायोपशमिक पर्याप्तक तिर्यंचनीके ही होता है, अपर्याप्तक तिर्यचनीके नहीं। मनुष्य गतिमें क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों प्रकारके मनुष्योंके होता है । औपशमिक सम्यग्दर्शन पर्याप्तक मनुष्य के ही होता है, अपर्याप्तक मनुष्यके नहीं। मनुष्य नियोंके तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं किन्तु ये पर्याप्तक मनुष्यनीके ही होते हैं, अपर्याप्तक मनुष्यनीके नहीं । देवगतिमें पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों प्रकारके देवोंके तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं । शंका--अपर्याप्तक देवोंके औपशमिक सम्यग्दर्शन कैसे होता है ?समाधान-जो मनुष्य चारित्रमोहनीयका उपशम करके या करते हुए उपशमश्रेणी में मरकर देव होते है उन देवोंके अपर्याप्तक अवस्थामें औपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके, इन तीनोंकी देवांगनाओंके, तथा सौधर्म और ऐशान कल्पमें उत्पन्न हई देवांगनाओंके क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता, औपशामिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यग्दर्शन होते हैं सो वे भी पर्याप्तक अवस्थामें ही होते हैं।
8 27. इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, अन्य जीवोंके कोई भी सम्यग्दर्शन नहीं होता । कायमार्गणाके अनुवादसे त्रसकायिक जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, अन्य कायवाले जीवोंके कोई भी सम्यग्दर्शन नहीं होता। योगमार्गणाके अनुवादसे तीनों योगवाले जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु अयोगी जीवोंके एक क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है। वेदमार्गणाके अनुवादसे तीनों वेदवाले जीवोंके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु अपगतवेदी जीवोंके औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यग्दर्शन होते हैं । कषायमार्गणाके अनुवादसे चारों कषायवाले जीवोंके तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु कषायरहित जीवोंके 1. नास्ति । कुत इत्युक्ते मनुष्यः कर्मभूमिज एव दर्शनमोहक्षपणाप्रारम्भको भवति । क्षपणाप्रारम्भकालात्पूर्व तिर्यक्ष बद्धायुष्कोऽपि उत्कृष्ट भोगभूमितिर्यकपुरुषेष्वेवोत्पद्यते न तिर्यस्त्रीष द्रव्यदेवस्त्रीणां तासां क्षायिकासंभवात । एवं तिरश्चामप्यपर्याप्तकानां क्षायोपशमिकं ज्ञेयं न पर्याप्तकानाम । औप-म.। 2.कानाम् । क्षायिकं पुनर्भाववेदेनैव । देव-मु.। ३.-गतो सामान्येन देवा-मु.। 4. प्रति। विशेषेण भवन-म.।
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