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20] सर्वार्थसिद्धी
[1178 29 -- न संभवति; प्रागेव गृहीतसम्यक्त्वानां तत्रोत्पत्तः।
8 29. अधिकरणं द्विविधम् -अभ्यन्तरं बाह्य च । अभ्यन्तरं स्वस्वामिसंम्बन्वाह एवं आत्मा, विवक्षातः कारकप्रवृत्तः। बाह्रलोकनाडी। सा कियती?एकरज्जुविष्कम्मा सतुर्वशरज्ज्वायामा।
6 30. स्थितिरौपशमिकस्य जघन्योत्कृष्टा चान्तमौ हूतिको। मायिकस्य संसारिणो जघन्यान्तमौहतिकी। उत्कृष्टा स्त्रिशत्सागरोपमाणि सान्तमुहर्ताष्टवर्ष हीनपूर्वकोटिद्वयाधिकानि। मुक्तस्पसादिरपर्यवसाना। क्षायोपशमिकस्य जघन्यान्तमा हुत्तिको उत्कृष्टाषष्टिसागरोपमाणि। साधन किन्हींके जातिस्मरण और किन्हींके धर्मश्रवण है । अनुदिश और अनुत्तरविमानों में रहनेवाले देवोंके यह कल्पना नहीं है, क्योंकि वहाँ सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते हैं।
$29. अधिकरण दो प्रकारका है—अभ्यन्तर और बाह्य । अभ्यन्तर अधिकरण—जिस सम्यग्दर्शनका जो स्वामी है वही उसका अभ्यन्तर अधिकरण है। यद्यपि सम्बन्धमें षष्ठी और अधिकरणमें सप्तमी विभक्ति होती है, फिर भी विवक्षाके अनुसार कारककी प्रवृत्ति होती है, अतः षष्ठी विभक्ति द्वारा पहले जो स्वामित्वका कथन किया है उसके स्थानमें सप्तमी विभक्ति करनेसे अधिकरणका कथन हो जाता है । बाह्य अधिकरण लोकनाड़ी है । शंका-वह कितनी बड़ी है ? समाधान-एक राजु चौड़ी और चौदह राजु लम्बी है।
30. औपशमिक सम्यग्दर्शनकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति एक अन्तर्मुहुर्त है। क्षायिक सम्यग्दर्शनकी संसारी जीवके जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है व उत्कृष्ट स्थिति आठ वर्ष और अन्तमुहूर्त कम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम है । मुक्त जीवके सादि-अनन्त है । क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनको जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है व उत्कृष्ट स्थिति छयासठ सागरोपम है। 1. क्षायिक सम्यग्दृष्टि उसी भवमें, तीसरे भवमें या चौथे भवमें मोक्ष जाता है। जो चौथे मवमें मोक्ष जाता है वह पहले मौगभूमिमें उसके बाद देव पर्यायमें जन्म लेकर और अन्त में मनुष्य होकर मोक्ष जाता है । जो तीसरे मवमें मोक्ष जाता है वह पहले नरक या देवपर्यायमें जन्म लेकर और अन्तमें मनुष्य होकर मोक्ष जाता है। यहां तीन और चार भवों में क्षायिक सम्बग्दर्शनके उत्पन्न होनेके भवका भी ग्रहण कर लिया है। संसारी जीवके क्षायिक सम्यग्दर्शनकी यह उत्कृष्ट स्थिति तीन भवकी अपेक्षा बतलायी है। प्रथम और अन्तके दो मव मनुष्य पर्याय के लिये गये हैं और दूसरा भव देव पर्यायका लिया गया है। इन तीनों भवोंकी उत्कृष्ट स्थिति दो पूर्व कोटि अधिक तेतीस सागरोपम होती है। किन्तु क्षायिक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्तके पहले नहीं हो सकती, इसलिए उक्त कालमें से इतना काल कम करके क्षायिक सम्यग्दर्शनकी उत्कृष्ट स्थिति पाठ वर्ष अन्तर्मुहुर्त कम दो पूर्व कोटि वर्ष अधिक तेतीस सागरोपण बतलायी है। 2. खुद्दाबन्धमें क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनका उत्कृष्ट काल छयासठ सागरोपम इस प्रकार घटित करके बतलाया है-एक जीव उपशम सम्यक्त्वसे वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त होकर शेष मुज्यमान प्रायुसे कम बीस सागरोपमकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुमा। फिर मनुष्यों में उत्पन्न होकर पुन: मनुष्यायुसे कम बाईस सागरोपमकी आयुवाले देवों में उत्पन्न हुमा। फिर मनुष्यगतिमें जाकर मुज्यमान मनुष्यायुसे तथा दर्शनमोहकी क्षपणा पर्यन्त प्रागे भोगी जानेवाली मनुष्यायुसे कम चौबीस सागरोपमकी प्रायुवाले देवोंमें उत्पन्न हुमा। वहाँसे फिर मनुष्य गतिमें माकर वहाँ वेदक सम्यक्त्वके काल में अन्तमुहूतं रह जाने पर दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारम्भ करके कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि हो गया। यह जीव जब कृतकृत्यवेदकके अन्तिम समय में स्थित होता है तब क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनका उत्कृष्ट काल छयासठ सागरोपम प्राप्त होता है।
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