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सर्वार्थसिद्धौ
[115 § 23
प्रकृतनिरूपणाय च । निक्षेपविधिना' शब्दार्थः प्रस्तीर्यते । तच्छब्दग्रहणं किमर्थम् ? सर्वसंग्रहार्थम् । असति हि तच्छब्दे सम्यग्दर्शनादीनां प्रधानानामेव न्यासेनाभिसंबन्धः स्यात्, तद्विषभावेनोपगृहीतानां जीवादीनां अप्रधानानां न स्यात् । तच्छब्बग्रहणे पुनः क्रियमाणे सति सामर्थ्यात्प्रधानानामप्रधानानां च ग्रहणं सिद्धं भवति ।
8 23. एवं नामादिभिः प्रस्तीर्णानामधिकृतानां तत्त्वाधिगमः कुतः इत्यत इदमुच्यतेप्रमाणनयैरधिगमः 11611
24. नामादिनिक्षेप विधिनोपक्षिप्तानां जीवादीनां 'तत्त्वं प्रमाणाभ्यां नयश्चाषि 'गम्यते ।
जीव कहलाता है । इसी प्रकार अजीवादि अन्य पदार्थोंकी भी नामादि निक्षेप विधि लगा लेना चाहिए। शंका - निक्षेप विधिका कथन किस लिए किया जाता है ? समाधान - अप्रकृतका निराकरण करने के लिए और प्रकृतका निरूपण करनेके लिए इसका कथन किया जाता है । तात्पर्य यह है कि प्रकृतमें किस शब्दका क्या अर्थ है यह निक्षेप विधिके द्वारा विस्तारसे बतलाया जाता है। शंका- सूत्रमें 'तत्' शब्दका ग्रहण किस लिए किया है ? समाधान - सबका संग्रह करनेके लिए सूत्रमें 'तत्' शब्दका ग्रहण किया है। यदि सूत्र में 'तत्' शब्द न रखा जाय तो प्रधानभूत सम्यग्दर्शनादिका ही न्यासके साथ सम्बन्ध होता । सम्यग्दर्शनादिकके विषयरूपसे ग्रहण किये गये अप्रधानभूत जीवादिकका न्यासके साथ सम्बन्ध न होता । परन्तु सूत्रमें 'तत्' शब्दके ग्रहण कर लेनेपर सामर्थ्य से प्रधान और अप्रधान सबका ग्रहण बन जाता है ।
ॐ विशेषार्थ - नि उपसर्ग पूर्वक क्षिप् धातुसे निक्षेप शब्द बना । निक्षेपका अर्थ रखना' है । न्यास शब्दका भी यही अर्थ है । आशय यह है कि एक-एक शब्दका लोकमें और शास्त्रमें प्रयोजन के अनुसार अनेक अर्थोंमें प्रयोग किया जाता है । यह प्रयोग कहाँ किस अर्थ में किया गया है इस बात को बतलाना ही निक्षेप विधिका काम है । यों तो आवश्यकतानुसार निक्षेपके अनेक भेद किये जा सकते हैं। शास्त्रोंमें भी ऐसे विविध भेदों का उल्लेख देखनेमें आता है । किन्तु मुख्यतया यहाँ इसके चार भेद किये गये हैं—नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । इनका लक्षण और दृष्टान्त द्वारा कथन टीकामें किया ही है । आशय यह है कि जैसे टीकामें एक जीव शब्दका नाम निक्षेपकी अपेक्षा भिन्न अर्थ बतलाया है, स्थापना निक्षेपको अपेक्षा भिन्न अर्थ बतलाया है, द्रव्य निक्षेपकी अपेक्षा भिन्न अर्थ बतलाया है और भाव निक्षेपकी अपेक्षा भिन्न अर्थ बतलाया है, उसी प्रकार प्रत्येक शब्दका नामादि निक्षेप विधिके अनुसार पृथक्-पृथक् अर्थ होता है। इससे अप्रकृत अर्थका निराकरण होकर प्रकृत अर्थका ग्रहण हो जाता है, जिससे व्यवहार करनेमें किसी प्रकारकी गड़बड़ी नहीं होती। इससे वक्ता और श्रोता दोनों ही एक दूसरेके आशयको भली प्रकार समझ जाते हैं । ग्रन्थका हार्द समझनेके लिए भी इस विधिका ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है जैन परम्परामें इसका बड़ा भारी महत्व माना गया है। इसी बातको ध्यानमें रखकर यहाँ भेदोंसहित निक्षेपके स्वरूपको स्पष्ट किया गया है ।
23. इस प्रकार नामादिकके द्वारा विस्तारको प्राप्त हुए और अधिकृत जीवादिक व सम्यग्दर्शनादिकके स्वरूपका ज्ञान किसके द्वारा होता है इस बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
प्रमाण और नयोंसे पदार्थोंका ज्ञान होता है ॥6॥
24. जिन जीवादि पदार्थोंका नाम आदि निक्षेपं विधिके द्वारा विस्तारसे कथन किया 1. - विना नामशब्दा मु. अ. । 2. तत्त्वं प्रमाणेभ्यो नये - मु. । . श्चाभिग- आ, दि. 1, दि. 21
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