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प्रथमोऽध्यायः इत्पर्यो निश्चीयत इति यावत् । तत्वेनार्थस्तत्त्वार्थः । अथवा भावेन भाववतोऽभिधानम्, तदव्यतिरेकात् । तत्त्वमेवार्थस्तत्त्वार्थः । तत्त्वार्थस्य श्रद्धानं तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं प्रत्येतव्यम् । तस्वार्षश्च वक्षमाणो जीवादिः ।।
$11. वृशेरालोकार्थत्वात् श्रद्धानार्थगतिर्नोपपद्यते ? घातूनामनेकार्थत्वाददोषः । प्रसिद्धार्थत्यागः कुत इति चेत् ? मोक्षमार्गप्रकरणात् । तत्त्वार्थश्रद्धानं ह्यात्मपरिणामो मोक्षसाधनं बुज्यते, भव्यजीवविषयत्वात् । आलोकस्तु चक्षुरादिनिमित्तः सर्वसंसारिजीवसाधारणत्वान्न मोक्षमार्गों युक्तः।
12. अर्थश्रद्धानमिति चेत् ? सर्वार्थप्रसंगः । तत्त्वश्रद्धानमिति चेत् ? भावमात्रप्रसंगः । 'सत्ताद्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वादि तत्त्वम्' इति कैश्चित्कल्प्यत इति । तत्वमेकत्वमिति वा सर्वैक्यप्रणप्रसंगः । 'पुरुष एवेदं सर्वम्' इत्यादि कश्चित्कल्प्यत इति । एवं सति दृष्टेष्टविरोधः । तस्मादव्यभिचारार्थमुभयोरुपादानम् । तद् द्विविध, सरागवीतरागविषयभेदात् प्रशमसंवेगानु. कम्पास्तिक्याघभिव्यक्तिलक्षणं प्रथमम् । आत्मविशुद्धिमात्रमितरत् । पदार्थ लिया गया है। आशय यह है कि जो पदार्थ जिस रूपसे अवस्थित है उसका उस रूप होना यही तत्त्व शब्दका अर्थ है। अर्थ शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है...अर्यते निश्चीयते इत्यर्थ:-जो निश्चय किया जाता है। यहाँ तत्त्व और अर्थ इन दोनों शब्दोंके संयोगसे तत्त्वार्थ शब्द बना है जो 'तत्त्वेन अर्थस्तत्वार्थः' ऐसा समास करने पर प्राप्त होता है। अथवा भाव-द्वारा भाववाले पदार्थ का कथन किया जाता है, क्योंकि भाव भाववाले से अलग नहीं पाया जाता। ऐसी हालतमें इसका समास होगा 'तत्त्वमेव अर्थः तत्त्वार्थः । तत्त्वार्थका श्रद्धान तत्त्वार्थश्रद्धान कहलाता है। उसे ही सम्यग्दर्शन जानना चाहिए।
11. शंका-दर्शन शब्द 'दृशि' धातुसे बना है जिसका अर्थ आलोक है, अतः इससे धद्वानरूप अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता है ? समाधान-धातुओंके अनेक अर्थ होते हैं, अत: 'दृशि' धातुका श्रद्धानरूप अर्थ करने में कोई दोष नहीं है। शंका-यहां 'दशि' धातुका प्रसिद्ध अर्थ क्यों छोड़ दिया है ? समाधान-मोक्षमार्गका प्रकरण होने से । तत्त्वार्थोका श्रद्धान आत्माका परिणाम है वह मोक्षका साधन बन जाता है, क्योंकि वह भव्योंके ही पाया जाता है, किन्तु आलोक चक्ष आदिके निमित्तसे होता है जो साधारण रूपसे सब संसारी जीवोंके पाया जाता है, अत: उसे मोक्षमार्ग मानना युक्त नहीं है।
12. शंका-सूत्रमें 'तत्त्वार्थश्रद्धानम्' के स्थान में 'अर्थश्रद्धानम' इतना कहना पर्याप्त है? समाधान-इससे अर्थ शब्दके धन, प्रयोजन और अभिधेय आदि जितने भी अर्थ हैं उन सबके ग्रहणका प्रसंग आता है जो युक्त गहीं है, अत: 'अर्थश्रद्धानम्' केवल इतना नहीं कहा है । शंकातब 'तस्वश्रद्धानम्' इतना ही ग्रहण करना चाहिए ? समाधान—इससे केवल भाव मात्र के ग्रहणका प्रसंग प्राप्त होता है । कितने ही लोग (वैशेषिक) तत्त्व पदसे सत्ता, द्रव्यत्व, गुणत्व और कर्मत्व इत्यादि का ग्रहण करते हैं। अब यदि सूत्रमें 'तत्त्वश्रद्धानम्' इतना ही रहने दिया जाता है तो इससे इन सबका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है जो युक्त नहीं है । अथवा तस्व शब्द एकत्ववाची है, इसलिए सूत्रमें केवल तत्त्व पदके रखने से 'सब सर्वथा एक हैं' इस प्रकार स्वीकार करनेका प्रसंग प्राप्त होता है । यह सब दृश्य व अदृश्य जग पुरुषस्वरूप ही है' ऐसा किव्हींने माना भी है। किन्तु ऐसा मानने पर प्रत्यक्ष और अनुमानसे विरोध आता है, अतः इन सब दोषोंके दूर करने के लिए सूत्रमें 'तत्त्व' और 'अर्थ' इन दोनों पदोंका ग्रहण किया है। सम्मादर्शन दो प्रकार का है-सराग सम्यग्दर्शन और वीतराग सम्यग्दर्शन। प्रशम, संवेग,
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