________________
-113 816]
प्रथमोऽध्यायः 13. अपतत्सम्यग्दर्शनं जीवाविपदार्थविषयं कथमुत्पद्यत इत्यत आह
तन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥3॥ 814. निसर्गः स्वभाव इत्यर्थः । अधिगमोऽर्थावबोधः। तयोर्हेतुत्वेन निर्देशः। कस्याः ? क्रियायाः।का च क्रिया ? उत्पद्यत इत्यध्याह्रियते, सोपस्कारत्वात् सूत्राणाम् । तदेतत्सम्यग्दर्शनं निसर्गादधिगमाद्वोत्पद्यत इति ।
15. अत्राह-निसर्गजे सम्यग्दर्शनेाधिगमः स्याद्वा न वा । यद्यस्ति, तदपि.अधिगमजमेव नार्थान्तरम् । अथ नास्ति, कथमनवबुद्धतत्त्वस्यार्थश्रद्धानमिति ? नैष दोषः, उभयत्र सम्यग्दर्शने अन्तरङ्गो हेतुस्तुल्यो दर्शनमोहस्योपशमः क्षयः क्षयोपशमो वा। तस्मिन्सति यद्बाह्योपदेशावृत्त प्रादुर्भवति तन्नैसर्गिकम् । यत्परोपदेशपूर्वकं जीवाद्यधिगमनिमित्तं तदुत्तरम् । इत्यनयोरयं भेदः।
616. तद्ग्रहणं किमर्थम् ? अनन्तरनिर्देशार्थम् । अनन्तरं सम्यग्दर्शनं तदित्यनेन वे इसके ज्ञापक या सूचक होने से निमित्तपनेकी अपेक्षा कारणमें कार्य का उपचार करके इन्हें. व्यवहारसे सराग सम्यग्दर्शन कहा गया है। रागादिकी तीव्रताका न होना प्रशमभाव है। संसारसे भीतरूप परिणाम का होना संवेगभाव है । सब जीवों में दयाभाव रख कर प्रवृत्ति करना अनुकम्पा है और जीवादिपदार्थ सत्स्वरूप हैं, लोक अनादि अनिधन है, इसका कर्ता कोई नहीं है तथा निमित्त-नैमित्तिक भावके रहते हुए भी अपने परिणामस्वभाव के कारण सबका परिणमन स्वयं होता है, आगम और सद्गुरुके उपदेशानुसार ऐसी प्रांजल बुद्धिका होना आस्तिक्यभाव है।
13. अब जोवादि पदार्थोंको विषय करनेवाला यह सम्यग्दर्शन किस प्रकार उत्पन्न होता है इस बातके बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
वह (सम्यग्दर्शन) निसर्गसे और अधिगमसे उत्पन्न होता है ॥3॥
14. निसर्गका अर्थ स्वभाव है और अधिगमका अर्थ पदार्थका ज्ञान है। सूत्रमें इन दोनोंका हेतरूपसे निर्देश किया है। शंका-इन दोनोंका किसके हेतरूपसे निर्देश किया है? समाधान-क्रियाके । शंका-वह कौन-सी क्रिया है ? समाधान–'उत्पन्न होता है' यह क्रिया है । यद्यपि इसका उल्लेख सूत्रमें नहीं किया है तथापि इसका अध्याहार कर लेना चाहिए, क्योंकि सूत्र उपस्कार सहित होते हैं । यह सम्यग्दर्शन निसर्गसे और अधिगमसे उत्पन्न होता है यह इस सूत्रका तात्पर्य है।
15. शंका-निसर्गज सम्यग्दर्शनमें पदार्थोंका ज्ञान होता है या नहीं। यदि होता है तो वह भी अधिगमज ही हुआ,उससे भिन्न नहीं । यदि नहीं होता है तो जिसने पदार्थोंको नहीं जाना है उसे उनका श्रद्धान कैसे हो सकता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि दोनों सम्यग्दर्शनोंमें दर्शनमोहनीयका उपशम, क्षय या क्षयोपशमरूप अन्तरंग कारण समान है। इसके रहते हुए जो बाह्य उपदेशके बिना होता है वह नैसर्गिक सम्यग्दर्शन है और जो बाह्य उपदेशपूर्वक जीवादि पदार्थों के ज्ञानके निमित्तसे होता है वह अधिगमज सम्यग्दर्शन है । यही इन दोनों में भेद है।
16. शंका-सूत्रमें 'तत्' पदका ग्रहण किसलिए किया है ? समाधान-इस सूत्रसे पूर्वके सूत्र में सम्यग्दर्शन का ग्रहण किया है उसीका निर्देश करनेके लिए यहाँ 'तत्' पदका ग्रहण 1.-षयं तत् कथं- आ., दि. 1, दि. 21 2. तदेव सम्य-आ., दि. 1, दि. 2, अ.। 3.-मित्तं स्यात
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org