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प्रथमोऽध्यायः ज्ञानम् । चरति चर्यतेऽनेन चरणमात्रं वा चारित्रम् । नन्देवं स एव कर्ता स एव करणमित्यायातम् । तच्च विरुद्धम् । सत्यं, स्वपरिणामपरिणामिनो दविवक्षायां तथाभिधानात् । यथाग्निदहतीन्धनं दाहपरिणामेन । उक्तः कादिसाधनभावः पर्यायपर्याथिणोरेकत्वानेकत्वं प्रत्यनेकान्तोपपत्ती स्वातन्त्र्यपारतन्त्र्यविवक्षोपपत्तेरेकस्मिन्नप्यर्थे न विरुध्यते । अग्नौ दहनादिक्रियायाः कादिसाधनभाववत् ।
87. ज्ञानग्रहणमादौ न्याय्यं, दर्शनस्य तत्पूर्वकत्वात् अल्पाच्तरत्वाच्च । नेतद्युक्तं, युगपदुत्पत्तेः । यदास्य दर्शनमोहस्योपशमारक्षयात्क्षयोपशमाद्वा आत्मा सम्यग्दर्शनपर्यायेणाविर्भवति तदैव तस्य मत्यज्ञानश्रुताज्ञाननिवृत्तिपूर्वकं मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं चाविर्भवति घनपटलविंगगे सवितुः प्रतापप्रकाशाभिव्यक्तिवत् । अल्पान्तरादहितं पूर्व निपतति । कथमभ्यहितत्वम् ? ज्ञानस्य सम्यग्व्यपदेशहेतृत्वात् । चारित्रात्पूर्व ज्ञानं प्रयुक्तं, तत्पूर्वकत्वाच्चारित्रस्य ।
$6. दर्शन, ज्ञान और चारित्रका व्युत्पत्यर्थ- दर्शन शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है'पश्यति दृश्यतेऽनेन दृष्टिमात्रं वा दर्शनम्'-जो देखता है, जिसके द्वारा देखा जाता है या देखनामात्र । ज्ञान शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है--जानाति ज्ञायते अनेन ज्ञप्तिमात्र वा ज्ञानम--जो जाता है, जिसके द्वारा जाना जाता है या जानना मात्र । चारित्र शब्दका व्युत्पत्तिलक्ष्य अर्थ है.--चरति चर्यतेऽनेन चरणमात्रं वा चारित्रम्--जो आचरण करता है, जिसके द्वारा आच'ए किया जाता है या आचरण करना मात्र । शंका-दर्शन आदि शब्दोंकी इस प्रकार व्युत्पत्ति कर पर कर्ता और करण एक हो जाता है किन्तु यह बात विरुद्ध है ? समाधान --- यद्यपि यह कहन सही है तथापि स्वपरिणाम और परिणामीमें भेदकी विवक्षा होनेपर उक्त प्रकारसे कथन किया गया हैं । जैसे 'अग्नि दाह परिणामके द्वारा ईंधनको जलाती है यह कथन भेदविवक्षाके होनेपर ही बनता है। यहाँ च कि पर्याय और पर्यायीमें एकत्व और अनेकत्वके प्रति अनेकान्त है, अत: स्वातन्त्र्य और पारतन्त्र्य विवक्षाके होनेसे एक ही पदार्थमें पूर्वोक्त कर्ता आदि साधनभाव विरोधको प्राप्त नहीं होता। जैसे कि अग्निसे दहन आदि क्रियाकी अपेक्षा कर्ता आदि साधनभाव बन जाता है, वैसे ही प्रकृतमें जानना चाहिए।
7. शंका--सूत्रमें पहले ज्ञानका ग्रहण करना उचित है, क्योंकि एक तो दर्शन ज्ञानपूर्वक होता है और दूसरे ज्ञानमें दर्शन शब्दकी अपेक्षा कम अक्षर हैं ? समाधान-यह कहना युक्त नहीं कि दर्शन ज्ञानपूर्वक होता है इसलिए सूत्रमें ज्ञानको पहले ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि दर्शन और ज्ञान एक साथ उत्पन्न होते हैं । जैसे मेघ-पटलके दूर हो जाने पर सूर्यके प्रताप और प्रकाश एक साथ व्यक्त होते हैं, उसी प्रकार जिस समय दर्शनमोहनीयका उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेसे आत्मा सम्यग्दर्शन पर्यायसे आविर्भूत होता है उसी समय उसके मत्यज्ञान और श्रताज्ञान का निराकरण होकर मतिज्ञान और श्रतज्ञान प्रकट होते हैं। दसरे. ऐसा नियम है कि सुत्रमें अस्प अक्षरवाले शब्दसे पूज्य शब्द पहले रखा जाता है, अतः पहले ज्ञान शब्दको न रखकर दर्शन शब्दको रखा है। शंका-सम्यग्दर्शन पुज्य क्यों है ? समाधान--क्योंकि सम्यग्दर्शन. ज्ञानके सम्यक् व्यपदेशका हेतु है। चारित्र के पहले ज्ञान का प्रयोग किया है, क्योंकि चारित्र ज्ञानपूर्वक होता है। 1. -रित्रम्। उक्त: कर्ना- आ., ता. न.! 2. कादिभिः सा- मु.। 3. 'अल्पान्तरम् ।'---पा. 212134। 4. -टलविरामे स- आ., अ., दि. 1, दि. 21 5. 'अभ्यहितं च पूर्व निपततीति । .-पा. म. भा. 21212134।।
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