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प्रथमोऽध्यायः
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का सम्बन्ध विवक्षित नहीं है, किन्तु आचार्य की इच्छा संसारसागरमें निमग्न प्राणियों के उद्धार करने की हुई। परन्तु मोक्षमार्गके उपदेशके बिना उनके हितका उपदेश नहीं दिया जा सकता अतः मोक्षमार्गके व्याख्यानकी इच्छा से यह शास्त्र रचा गया। मालूम होता है कि इस उल्लेख द्वारा तत्त्वार्थवार्तिककारने तत्त्वार्थाधिगमभाष्यकी उत्थानिका का निर्देश किया है। तत्त्वार्थाधिगमभाष्यमें इसी आशयकी उत्थानिका पायी जाती है। श्रुतसागरसूरि ने भी अपनी श्रुतसागरी में यही बतलाया है कि किसी शिष्यके प्रश्नके अनुरोधसे आचार्यवर्यने तत्त्वार्थसूत्र की रचना की। उसमें शिष्यका नाम द्वयाक दिया है। इससे मालूम होता है कि सर्वार्थसिद्धिका यह अभिप्राय मुख्य है कि शिष्य के प्रश्नके निमित्तसे तत्त्वार्थसूत्रकी रचना हुई है। आगे उत्थानिका में मोक्षकी चर्चा आ जाने से थोडेमें मोक्षतत्त्वकी मीमांसा की गयी है। नियम यह है कि कर्म के निमित्तसे होनेवाले कार्यों में आत्मा की एकत्व तथा इष्टानिष्ट बुद्धि होनेसे संसार होता है। अतः कर्म, भावकर्म और नोकर्मके आत्मासे अलग हो जाने पर जो आत्माकी अपने ज्ञानादि गुण और आत्मोत्थ अव्याबाध सुखरूप स्वाभाविक अवस्था प्राप्त होती है उसे मोक्ष कहते हैं यह सिद्ध होता है। किन्तु अन्य प्रवादी लोग इस प्रकारसे मोक्षतत्त्व का विश्लेषण करनेमें असमर्थ हैं। पूज्यपाद स्वामीने तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता गृद्धपिच्छ आचार्यके मुखसे ऐसे तीन उदाहरण उपस्थित कराये हैं जिनके द्वारा मोक्षतत्त्वका गलत तरीकेसे स्वरूप उपस्थित किया गया है। इस प्रसंगसे सर्व प्रथम सांख्यमतकी मीमांसा की गयी है। यद्यपि सांख्योंने आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक इन तीन प्रकारके दुःखोंका सदा के लिए दूर हो जाना मोक्ष माना है, तथापि वे आत्माको चैतन्य स्वरूप मानते हुए भी उसे ज्ञानरहित मानते हैं। उनकी मान्यता है कि ज्ञानधर्म प्रकृतिका है तो भी संसर्गसे पुरुष अपनेको ज्ञानवान् अनुभव करता है और प्रकृति अपनेको चेतन अनुभव करती है। इसी से यहाँ सांख्यों के मोक्षतत्त्व की आलोचना न करके पुरुषतत्त्व की आलोचना की गयी है और उसे असत् बतलाया गया है। दूसरा मत वैशेषिकों का है। वैशेषिकोंने ज्ञानादि विशेष गुणोंको समवायसम्बन्धसे यद्यपि आत्मा में स्वीकार किया है तथापि वे आत्मासे उनके उच्छेद हो जानेको उसकी मुक्ति मानते हैं। उनके यहाँ बतलाया है कि बुद्धि आदि विशेष गुणोंकी उत्पत्ति आत्मा और मनके संयोगरूप असमवायी कारणसे होती है। मोक्ष अवस्थामें चूँकि आत्मा और मनका संयोग नहीं रहता अतः वहाँ विशेष गुणोंका सर्वथा अभाव हो जाता है। उनके यहाँ सभी व्यापक द्रव्योंके विशेष गुण क्षणिक माने गये हैं, इसलिए वे मोक्षमें ज्ञानादि विशेष गुणोंका अभाव होने में आपत्ति नहीं समझते। अब यदि राग-द्वेष आदिकी तरह मुक्तावस्थामें आत्मा को ज्ञानादि गुणोंसे भी रहित मान लिया जाय तो आत्मा स्वतन्त्र पदार्थ नहीं ठहरता, क्योंकि जिसका किसी भी प्रकार का विशेष लक्षण नहीं पाया जाता वह वस्तु ही नहीं हो सकती। यही कारण है कि इनकी मान्यताको भी असत् बतलाया गया है। तीसरा मत बौद्धोंका है। बौद्धोंके यहाँ सोपधिशेष और निरुपधिशेष ये दो प्रकार के निर्वाण माने गये हैं। सोपधिशेष निर्वाणमें केवल अविद्या, तृष्णा आदि रूप आत्रवोंका ही नाश होता है, शुद्ध चित्सन्तति शेष रह जाती है। किन्तु निरुपधिशेष निर्वाणमें चित्सन्तति भी नष्ट हो जाती है। यहाँ मोक्षके इस दूसरे भेद को ध्यान में रखकर उसकी मीमांसा की गयी है। इस सम्बन्धमें बौद्धों का कहना है कि दीपकके बुझा देने पर जिस प्रकार वह ऊपर-नीचे दायें-बायें आगे-पीछे कहीं नहीं जाता किन्त वहीं शान्त हो जाता है। उसी प्रकार आत्मा की सन्तानका अन्त हो जाना ही उसका मोक्ष है। इसके बाद आत्माकी सन्तान नहीं चलती, वह वहीं शान्त हो जाती है। बोद्धोंके इस तत्त्वकी मीमांसा करते हुए आचार्यने बतलाया है कि उनकी यह कल्पना असत् ही है।
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