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श्रीपूज्यपादाचार्यविरचिता सर्वार्थसिद्धिः
प्रथमोऽध्यायः मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् ।
मातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥1॥ 1. कश्चिद् भव्यः प्रत्यासन्ननिष्ठः प्रज्ञावान् स्वहितगपलिप्सुविविक्ते परमरम्ये भव्यसत्त्वविश्रामास्पदे क्वचिदाश्रमपदे मुनिपरिषन्मध्ये संनिषण्णं मूर्तमिव मोक्षमार्गमवाग्विसर्ग वपुषा निरूपयन्तं युक्त्यागमकुशलं परहितप्रतिपादनककार्यमार्यनिषेव्यं निन्थाचार्यवर्यमुपसच सविनयं परिपृच्छति स्म । भगवन्, किं नु ख
SMATERIAणादिति ? स आह मोक्ष इति ।स एव पुनः प्रत्याह-किस्वरूपोऽसौ मोक्षः कश्चास्य प्राप्त्युपाय इति ? आचार्य आह-निरवशेषनिराकृतकर्ममलकलंकस्याशरीरस्यात्मनोऽचिन्त्यस्वाभाविकज्ञानादिगुणमव्यावाषसुसमात्यन्तिकमवस्थान्तरं मोक्ष इति।
82. तस्यात्यन्तपरोक्षत्वाच्छन्मस्थाः प्रवादिनस्तीर्थकरंमन्यास्तस्य स्वरूपमस्पृशन्तीभिर्वाग्भिर्युक्त्याभासनिबन्धनाभिरन्यव परिकल्पयन्ति "चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम्, तच्च श्रेया
जो मोक्षमार्गके नेता हैं, कर्मरूपी पर्वतोंके भेदनेवाले हैं और विश्वतत्त्वोंके ज्ञाता है, उनकी मैं उन समान गुणोंकी प्राप्तिके लिए द्रव्य और भाव उभयरूपसे वन्दना करता है ।
1. अपने हितको चाहनेवाला कोई एक बुद्धिमान् निकट भव्य था। वह अत्यन्त रमणीय भव्य जीवोंके विश्रामके योग्य किसी एकान्त आश्रममें गया। वहां उसने मुनियोंकी सभामें बैठे हुए वचन बोले बिना ही, मात्र अपने शरीरकी आकृतिसे मानो मूर्तिमान् मोक्षमार्गका निरूपण करनेवाले, युक्ति तथा आगममें कुशल, दूसरे जीवोंके हितका मुख्यरूपसे प्रतिपादन करनेवाले और आर्य पुरुषोंके द्वारा सेवनीय प्रधान निर्ग्रन्थ आचार्यके पास जाकर विनयके साथ पूछा-'भगवन् ! आत्माका हित क्या है ?' आचार्यने उत्तर दिया-'आत्माका हित मोक्ष है।' भव्यने फिर पूछा-'मोक्षका क्या स्वरूप है और उसकी प्राप्तिका उपाय क्या है ?' आचार्यने कहा कि-~-'जब आत्मा भावकर्म द्रव्यकर्ममल कलंक और शरीरको अपनेसे सर्वथा जुदा कर देता है तब उसके जो अचिन्त्य स्वाभाविक ज्ञानादि गुणरूप और अव्याबाध सुखरूप सर्वथा विलक्षण अवस्था उत्पन्न होती है उसे मोक्ष कहते हैं।'
82. वह (मोक्ष) अत्यन्त परोक्ष है, अत: अपनेको तीर्थंकर माननेवाले अल्पज्ञानी प्रवादी लोग मोक्षके स्वरूपको स्पर्श नहीं करनेवाले और असत्य युक्तिरूप वचनोंके द्वारा उसका स्वरूप सर्वथा अन्य प्रकारसे बतलाते हैं । यथा-(1. सांख्य) पुरुषका स्वरूप चैतन्य है जो ज्ञेयके 1. किं खलु आत्मने- आ., अ.। चि खलु आत्मनो- दि. 1, दि. 21 2. मोक्षः त- बा., अ., दि. 1 दि. 21 3. 'चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपमिति'-योगमा. 1191 'तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्'-योगसू. 1131 4. स्वरूपमिति त- आ., त.।
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