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सर्वार्थसिद्धौ
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कारपरिच्छेदपराङ्मुखम्” इति । तत्सदप्यसदेव निराकारत्वादिति । "बुद्ध्यादिवैशेषिकगुणोच्छेदः पुरुषस्य मोक्षः" इति । तदपि परिकल्पनमसदेव, विशेषलक्षणशून्यस्यावस्तुत्वात् । "प्रदीपनिर्वाण' कल्पमात्मनिर्वाणम्" इति च । तस्य 'खरविषाणकल्पना तैरेवाहत्य निरूपिता । इत्येवमादि । तस्य स्वरूपमनवद्यमुत्तरत्र वक्ष्यामः ।
83. तत्प्राप्त्युपायं प्रत्यपि ते विसंवदन्ते - "ज्ञानादेव चारित्रनिरपेक्षा तत्प्राप्तिः, श्रद्धानमात्रादेव वा, ज्ञाननिरपेक्षाच्चारित्रमात्रादेव" इति च । व्याध्यभिभूतस्य तद्विनिवृत्त्यु पायभूतभेषजविषयव्यस्तज्ञानादिसाधनत्वाभाववद्' व्यस्तं ज्ञानादिर्मोक्षप्रात्युपायो न भवति ।
ज्ञानसे रहित है । किन्तु ऐसा चैतन्य सत्स्वरूप होकर भी असत् ही है, क्योंकि ऐसा मानने पर उसका स्वपरव्यवसायलक्षण कोई आकार अर्थात् स्वरूप नहीं प्राप्त होता । ( 2. वैशेषिक) बुद्धि आदि विशेष गुणों का नाश हो जाना ही आत्माका मोक्ष है । किन्तु यह कल्पना भी असमीचीन है, क्योंकि विशेष लक्षणसे रहित वस्तु नहीं होती। (3. बौद्ध) जिस प्रकार दीपक बुझ जाता है उसी प्रकार आत्माकी सन्तानका विच्छेद होना ही मोक्ष है । किन्तु जैसे गदहे सींग केवल कल्पनाके विषय होते हैं स्वरूपसत् नहीं होते वैसे ही इस प्रकारका मोक्ष भी केवल कल्पनाका विषय है स्वरूपसत् नहीं । यह बात स्वयं उन्हींके कथनसे सिद्ध हो जाती है । इत्यादि । इस मोक्षका निर्दोष स्वरूप आगे (दसवें अध्याय के सूत्र 2 में) कहेंगे ।
83. इसी प्रकार वे प्रवादी लोग उसकी प्राप्तिके विषय में भी विवाद करते हैं । कोई मानते हैं कि (1) चारित्रनिरपेक्ष ज्ञानसे मोक्षकी प्राप्ति होती है। दूसरे मानते हैं कि (2) केवल श्रद्धानसे मोक्षकी प्राप्ति होती है । तथा अन्य मानते हैं कि (3) ज्ञाननिरपेक्ष चारित्रसे ही मोक्षकी प्राप्ति होती है । परन्तु जिस प्रकार रोगके दूर करनेकी उपायभूत दवाईका मात्र ज्ञान, श्रद्धान या आचरण रोगीके रोगके दूर करनेका उपाय नहीं है उसी प्रकार अलग-अलग ज्ञान आदि मोक्षकी प्राप्तिके उपाय नहीं हैं ।
विशेषार्थ - अब तक जो कुछ बतलाया है यह तत्त्वार्थसूत्र और उसके प्रथम सूत्रकी उत्थानिका है । इसमें सर्व प्रथम जिस भव्यके निमित्तसे इसकी रचना हुई उसका निर्देश किया है। आशय यह है कि कोई एक भव्य आत्माके हितकी खोज में किसी एकान्त रम्य आश्रममें गया और वहाँ मुनियोंकी सभा में बैठे हुए निर्ग्रन्थाचार्यसे प्रश्न किया । इसपरसे इस तत्त्वार्थ सूत्र की रचना हुई है । तत्त्वार्थवार्तिक के प्रारम्भमें जो उत्थानिका दी है उससे भी इस बात की पुष्टि होती है । किन्तु वहाँ प्रथम सूत्रका निर्देश करनेके बाद एक दूसरे अभिप्रायका भी उल्लेख किया है । वहाँ बतलाया है कि तत्त्वार्थसूत्रकी रचनाके सम्बन्धमें अन्य लोग इस प्रकारसे व्याख्यान करते हैं कि 'इधर पुरुषोंकी शक्ति उत्तरोत्तर क्षीण होती जा रही है, अतः सिद्धान्तकी प्रक्रियाको प्रकट करनेके लिए मोक्षमार्ग के निर्देशके सम्बन्धसे आनुपूर्वी क्रमसे शास्त्रकी रचनाका प्रारम्भ करते हुए "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः " यह सूत्र कहा है । यहाँ शिष्य और आचार्य1. मुखम् । तत्-- अ । 2. --- त्वात् खरविषाणवत् । वृद्धया मु. 3. 'नवानामात्म विशेषगुणानामत्यन्तोच्छित्तिर्मोक्षः - प्रश. व्यो. पृ. 638 1 4. इति च । तदपि दि. 1 अ. 1 5. यस्मिन् न जातिनं जरा न मृत्युर्न व्याधयो नाप्रियसंप्रयोगः । नेच्छाविपन्नप्रियविप्रयोगः क्षेमं पदं नैष्ठिकमच्युतं तत् ॥ दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न कांचिद्विदिशं न कांचित् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् । सौन्दर 16 27-29 । 'प्रदीपस्येव निर्वाणं विमोक्षस्तस्य चेतसः । ' - वार्तिकालं. 11451 6. -षाणवत्कल्पना-- आ., दि. 1 अ.मु. 7. -- वत् । एवं व्यस्तज्ञानादि
दि. 1, दि. 2 मु. 1
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